मैं ख़ुश हूँ
धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’
मुझे ज़रूरत है,
जाम की, ऐसे ज़हर की . . .
जो ख़त्म कर दे मेरी,
सभी चिंताओं को।
सच है! मगर कड़वा है,
ज़िन्दगी में बड़ा होना,
बड़ा मुश्किल सा है,
दिखाना पड़ता है सभी को . . .
मैं ख़ुश हूँ।
किन्तु झंझावातों में उलझा,
हृदय का आंतरिक भाग
फड़फड़ाता है . . .
आज़ाद होने की ख़ातिर . . .
कुछ नाकाम कह सकते हैं उन्हें,
किन्तु!
वह जी रहा है,
अपनों का भार लिये . . .
मुस्कुराता है, खिलखिलाता है,
सभी के समक्ष
अकेले में अपने आँसुओं से,
दिल्लगी करने लगता है।
जो कभी आँखों की कोरों पर,
कभी गालों से होकर बहते हैं।
आसान सा लगता है सफ़र,
जहाँ से जीनी शुरू की
ज़िन्दगी अपनी,
आज उसी के ग़ुलाम बने बैठे हैं।
बस एक ही आस है अब . . .
एक जाम की, या किसी ज़हर की . . .
जो ख़त्म कर दे,
सभी चिन्ताओं को . . .