चाय

धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’ (अंक: 264, नवम्बर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

वह कुल्हड़ वाली चाय, 
कुछ अनोखी है, 
कुछ याद दिलाती है . . . 
प्रियतमा की! 
जब भी मिलन की घड़ी, 
समीप होती थी . . . 
मैं कहता, 
भैया एक चाय . . . 
 
यह अजीब तो नहीं है, 
किन्तु! स्वाभाविक है . . . 
जब हम दूरी तय करते हैं, 
अत्यधिक!! 
यह एक हिस्सा है, 
उनकी राह तकने का। 
एक-एक क्षण, 
जोड़ने के उपरांत . . . 
पहर तक बीत जाते हैं। 
किन्तु! हम पुनः दोहराते, 
भैया एक चाय . . . 
 
यह आदतन समाहित है, 
मेरे भीतर . . . 
जैसे इसका रंग, 
इसकी मिठास, इसका स्वाद! 
भिन्न होता है, हरेक स्थल पर . . . 
परन्तु! 
बेहद आकर्षण पूर्ण है स्वयं में, 
कारणवश मैं . . . 
थाम नहीं पाता, 
अपने मुख से उत्पन्न स्वर, 
फूट पड़ते हैं, 
भैया एक चाय . . . 
 
मैं अधूरा हूँ! 
अतः मेरे हृदय के यह, 
अत्यंत समीप है। 
छूकर मेरे अधरों को, 
सबूत देती है, 
अपनी मौजूदगी का। 
मध्यम शर्करा, मध्यम श्वेत पेय . . . 
अधिक होना स्वयं का वह, 
पुकारती है, समेटती है . . . 
अपने आलिंगन में, 
अर्थात् असमर्थ मैं . . . 
कहता हूँ! 
भैया एक चाय . . . 

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