सन्नाटा . . .
धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’
उतरा हूँ आज पुनः सन्नाटे में,
चहुँ ओर छाए अँधेरे में कहीं
किन्तु लौट पाया हूँ।
तमाम दीवारों को फलाँग कर . . .
जहाँ सिर्फ़ मैं हूँ,
और सिर्फ़ मैं ही हूँ . . .
मेरी वो कुछ आदतें,
कुछ पुरानी बातें . . .
पूर्ण रूप से सक्षम हैं।
इस सन्नाटे को देख मुस्कुराने में . . .
मेरा व्यथित मन,
कलुषित हृदय क्यों व्याकुल था?
चकाचौंध से भरे उस ठौर पर,
जहाँ पनप उठते हैं हर रोज़
अनेक प्रश्न!
जिनके उत्तर . . . मेरा हृदय
कभी खोज नहीं पाता . . .
किन्तु! मुझे भा रहा है,
मेरे मन में पसरा हुआ सन्नाटा . . .
क्योंकि? रहना है मुझे,
सन्नाटे की दीवारों के भीतर।
अतः स्वीकारा है मैंने इसे,
मेरे अंतर्मन से . . .
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