सन्नाटा . . .

15-05-2024

सन्नाटा . . .

धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’ (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

उतरा हूँ आज पुनः सन्नाटे में, 
चहुँ ओर छाए अँधेरे में कहीं
किन्तु लौट पाया हूँ। 
तमाम दीवारों को फलाँग कर . . . 
 
जहाँ सिर्फ़ मैं हूँ, 
और सिर्फ़ मैं ही हूँ . . . 
मेरी वो कुछ आदतें, 
कुछ पुरानी बातें . . . 
पूर्ण रूप से सक्षम हैं। 
इस सन्नाटे को देख मुस्कुराने में . . . 
 
मेरा व्यथित मन, 
कलुषित हृदय क्यों व्याकुल था? 
चकाचौंध से भरे उस ठौर पर, 
जहाँ पनप उठते हैं हर रोज़
अनेक प्रश्न! 
जिनके उत्तर . . . मेरा हृदय
कभी खोज नहीं पाता . . . 
 
किन्तु! मुझे भा रहा है, 
मेरे मन में पसरा हुआ सन्नाटा . . . 
क्योंकि? रहना है मुझे, 
सन्नाटे की दीवारों के भीतर। 
अतः स्वीकारा है मैंने इसे, 
मेरे अंतर्मन से . . . 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें