अट्टालिका पर एक सुता
धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’अट्टालिका पर एक सुता,
कुछ खोज रही मन ही मन में।
साँसें थमी थमी सी लगतीं,
शायद उसके जीवन में।
गरज रहे बादल ज़ोरों से,
बरखा की बूँदें बन आयीं।
पिय की आश करे सुकुमारी,
ना पिया मिले ना ही सुधि पायी।
नव पंकज सा मुखड़ा लेकर,
ज़ुल्फ़ें, मेघ का रूप धरे।
नैनों में अश्रु की धारा,
खड़ी खड़ी विलाप करे।
जब संग सहेली छत से अपनी,
संकेतों में बतलायीं।
प्रसन्न हुआ मन सुन सुधि पिय की,
होठों से है मुस्कायी।
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