सुकून की चाह है . . .
धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’
उधेड़बुन भारी ज़िन्दगी की,
हरेक राह पर
खिलखिलाती सी,
अधरों पर मुस्कान लिए . . .
कभी फिरेगी,
मेरे आँगन के मध्य वह।
घुँघरुओं की छनक से,
गूँज उठेंगी . . .
मेरे आलय की,
समस्त दीवारें।
एवं मेरे मनरूपी बादलों में,
उभरता हुआ उसका . . .
प्रतिबिंब!
आकर्षित करता है मुझे,
पुनः उसके समीप आने को।
जैसे अंधकार युक्त राह में,
यकायक रौशनी पनप उठे।
इन नेत्रों को सुकून की चाह है,
जो ताउम्र देखना चाहते हैं, उसे . . .
जिसे समाहित कर लिया है,
सदैव के लिए,
हृदय के भीतरी भाग में . . .
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