हम कवि हैं साहेब!!

15-10-2024

हम कवि हैं साहेब!!

धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’ (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

प्रश्न—
क्या करते हो तुम? 
यूँ ही कुछ भी लिख देते हो। 
कभी राजनीति, कभी महिलाओं पर, 
कभी न्याय-व्यवस्था, 
अरे बीमारियों पर भी लिख देते हो। 
इनको तो छोड़ो। क्यों भाई क्यों? 
लिखना ज़रूरी है क्या? 
और कहते हो। 
हम कवि हैं साहेब! 
 
उत्तर—
हाँ! हम कवि हैं साहेब! 
 
कभी दंगों और फ़सादों को
कभी दुनिया के हालातों को। 
पहुँचाते हैं संदेशा अपना, 
लिखते हैं, हम अपने भावों को, 
लोगों को जागरूक करने की ख़ातिर। 
अपनी कविताओं के माध्यम से, 
कभी लिखते हैं जाबाज़ों को। 
क्योंकि? हम कवि हैं साहेब! 
 
कुछ ओझल से नयनों की बोली, 
कभी उठती बाला की डोली। 
कभी सर्दी, गर्मी और बरसातों पर, 
सुनहरे दिन और चाँदनी रातों पर। 
कभी सूनी साँझ सँभालें हम 
और कभी जज़्बातों पर
खिल जाते हैं, हृदय सभी के, 
पढ़कर, सुनकर ख़यालातों पर। 
क्योंकि? हम कवि हैं साहेब! 
 
प्रातः मंजुल बीच सरोवर, 
खिले कुमुद की पंखुड़ियों पर। 
कभी जेष्ठ मास में कूक रही, 
कोयलिया की बोली पर। 
दहकते हुए अंगारों से, 
कभी बसंत की मस्त बहारों से। 
सींचते हैं अपनी कविता को, 
कभी असफलता के भारों से। 
और कैसे बतायें? कि हम कवि हैं साहेब! 
 
झरनों की धाराओं पर, 
कभी मन में उमड़ी आशाओं पर। 
खेत और खलिहानों पर, 
कभी बहते हुए अरमानों पर। 
कभी प्रियतमा की बिसरी यादें, 
और दिये हुए सामानों पर। 
सुर्ख़ नयन ख़्वाबों की डोरी, 
कभी डूबी हुई मझधारों पर। 
लिखते हैं अपना अनुभव, 
क्योंकि? हम कवि हैं साहेब! 

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