कैसे बताऊँ?
धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’
कभी आओ अगर ख़्यालों में,
तो बताएँ आपको . . .
कितना अहम हिस्सा हो,
मेरी ज़िंदगी में तुम।
उगते हुए दिनकर के जैसी,
शर्माती हुई साँझ हो तुम।
मद्धम-मद्धम नींदों में, अक्सर . . .
पनप उठते हो मेरे ख़्वाब में।
तुम हिस्सा हो।
मेरे हरेक पल का . . .
जो उभरता है, मेरे मन में कहीं,
तुम्हारे क़रीब होने से।
कैसे बताऊँ?
कि तुम क्या हो मेरे लिए?
किन्तु! जो भी हो . . .
मेरे लिए पर्याप्त है।