नफ़रतों के बीज ही बो दूँ
धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’अपनापन, मीठी सी बातें,
जिनकी चुभन उनके,
होठों से होकर सीधे
हृदय पर असर करती हैं।
उन्हें कैसे अपना कह दूँ?
सोचा! थोड़े नफ़रतों के बीज ही बो दूँ...
उनके मनगढ़ंत क़िस्सों से
परे नहीं हूँ। किन्तु...
अनजान बनना मुझे भी,
भली प्रकार से ज्ञात है।
मुझे विश्वास है स्वयं पर...
मेरे हृदय को आस रहती है,
सुकून की...
फिर भी सोचता हूँ,
थोड़ा नफ़रतों के बीज ही बो लूँ...
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