शीत की बदमाशियाँ
कृष्णा वर्माजाड़े ने जकड़ा आज भोर का प्रसार
दुबक बैठे नीड़ों में पंछी दम साध
गीला-गीला सियरा सवेरे का हाथ
पोर-पोर ठिठुर रहा क़ुदरत का आज
खिड़की से सर्द भाप लिपटी बेभाव
शीत लहर झुरझुरी लहू रही ठार
एक हाथ दूजे को मसल गरमा रहा
आलिंगनबद्ध शाल में रह-रह दुबका रहा
शीत भरे स्पंदन से बातें लड़खड़ा रहीं
किश्तों में टूट बात होंठों तक आ रही
ख़्याल सिहर-सिहर गए भीतरी दालान में
दाँत किटकिटा उठे हँसने के व्युत्थान में
सलेटी सा दिन आज निगल गया भोर
धवल चाँदनी सी हिम उतरी पुरज़ोर
आसमां की झरनी झरी झंझा की झार
धरती ने ओढ़ लिया सादा लिहाफ़
सिरफिरी हवाएँ जो उतरीं पहाड़ से
कभी मारें सीटियाँ कभी यूँ ही दहाड़ दें
खिड़कियों के काँचों को करें परेशान
झिरियों से भीतर आ करें हैरान
हाथ-पैर सर्दी से अकड़ रहा गात
शीत की बदमाशियाँ गुम आफ़ताब।