कृष्णा वर्मा - हाइकु - 3
कृष्णा वर्माडाल के पंछी
बाँचते हवाओं से
पेड़ों की व्यथा।
रुत सावनी
बाहर बरसातें
भीगता मन।
जुलाहे बुन
सिरजन की धुन
मोहती मन।
छुएँ सपन
धड़के पलकों का
नाज़ुक दिल।
उतरा चाँद
पूनम की हवेली
प्रेम ले पाश।
कर्म निराले
अँधेरों में उजाले
वर्तिका पाले।
बंसवारियाँ
धरें अधरों पर
वेणु के स्वर।
मदिराए हैं
नख से शिख तक
प्रकृति अंग।
सूखे हैं धारे
मरे सरोवर औ
हंस बंजारे।
रिश्ते औ नाते
किश्तों में चलती हैं
अब तो साँसें।
उमर मरी
सुधियों की केतकी
हरी की हरी।
कंठ भर्राए
बीती खड़ा समेटे
स्मृति चौराहे।
तेज़ जो चले
हवा बने तूफ़ान
हौले ही भले।
होड़ के मारे
दौड़े ऐसी दौड़ कि
छूटे सहारे।
सुबह-शाम
अपनों की सोचते
हुई तमाम।
वक़्त की ढैया
दुर्दिन में ठेलते
रहे पहिया।
कुतरें तोते
बाज़ों से मिल पंख
पखेरू रोते।
स्वजन खींचें
लक्ष्मन रेखाएँ क्यों
बाड़े बनाएँ।
गुपचुप सी
दिल के पलने में
पलती पीर।
यादें तुम्हारी
तरल कर गईं
आँखें हमारी।
काँच के कंचे
दुनिया थी आबाद
बचपन की।
काठ के लट्टू
मन को थे नचाते
ख़ुशी लुटाते।
टायर हाँक
बटोर लीं ख़ुशियाँ
बचपन में।
बिना काजल
चमका देतीं आँखें
बाल स्मृतियाँ।