मजबूरी
कृष्णा वर्मा"चलो ना दादी देर हो रही है मेरे सारे दोस्त पार्क में आ चुके होंगे।"
एक तो चप्पल टूट गई है ऊपर से इसे जाने की जल्दी हो रही है, मन ही मन बुदबुदाती दादी हलकी सी खीझ भरी आवाज़ में बोली, "अरे सुन लिया! आसमान क्यों सर पे उठा रखा है ज़रा सबर कर। चप्पल मरी इतनी घिस गई है कि पिन तक नहीं लग रहा।"
बिट्टू को उतावला होता देख चप्पल वहीं छोड़-छाड़ के सामने रखे बहू के ऊँची एड़ी के सैंडिल पहन बिट्टू को साथ ले पार्क में चल दी। बहुत अजीब महसूस कर रही थी मगर हाय रे मजबूरी। बिट्टू को बच्चों के साथ छोड़ ख़ुद प्रतिदिन की तरह बैंच पर बैठी औरतों के बीच आ बैठी। उसे देख एक ने छूटते ही मज़ाकिया हँसी हँसते हुए कहा, "आज तो रंग-ढंग ही न्यारे हैं, अब समझ आई आज आने में देर क्यों हो गई। अरे तुझे क्या सूझी… इस उम्र में फैशन की?"
"देखना कहीं पैर-वैर ना मुड़ जाए फैशन के चक्कर में," दूसरी ने खिल्ली उड़ाई।
सब को हँसी उड़ाते देख, वह मजबूरी को छिपाती हुई बोली, "ज़माने के साथ बदलना चाहिए। जो नहीं बदलते समय उन्हें इतिहास की खाई में धकेल देता है।"