महीने की आख़िरी तारीख़ थी। हाथ में एक पैसा नहीं, अख़बार भी तो नहीं बचे जिन्हें बेच कर आज के खाने का जुगाड़ कर लेती। कनस्तर में आटा तला छू रहा था। झाड़-झूड़ के बस दो ही रोटी का हो पाया। आटा गूँध वह रोटी सेंकने बैठी और साथ ही पति को खाना खाने को आवाज़ लगा दी। जब तक वह आया रोटी सिंक चुकी थी। थोड़े से आचार के साथ दो रोटी थाली में परोस कर पति को दी और ख़ुद पानी का गिलास गटक लिया। कौर तोड़ते हुए पति ने पूछा, "तुम्हारी थाली कहाँ है?"

"आज मेरा व्रत है और इसमें अनाज खाना मना है।"

बड़ी बेबस नज़रों से उसकी ओर देख बोला, "आज तो जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं जो फ़ल के नाम पर दो केले ही ले आऊँ।"

"आप खाना खाओ। वैसे भी बिना दाल के सूखी रोटी है ठंडी हो गई तो चबानी मुश्किल हो जाएगी। मेरी चिंता मत करो। मेरा क्या औरत ठहरी - और भूख कौन बड़ी बात है, लोरी दे कर अभी इसे पेट के किसी कोने में सुला दूँगी।"

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