अनपढ़ माँ

23-02-2019

अनपढ़ माँ

कृष्णा वर्मा

यूँ तो गोमती रोज़ ही अपने बहू-बेटे को सर फेंक कर काम में जुटा देखती, लेकिन पिछले कुछ दिनों से उसने जो जुनून उनमें देखा, ऐसा पहले कभी नहीं देखा! - दिन-रात वह दोनों कमप्यूटर पर दीदे गड़ाए रहते। आपस में खुसुर-पुसुर करते, आशा-निराशा साफ़ उनके मुख पर तैरती नज़र आती। ऐसा आभास होता जैसे किसी ख़ास काम की खोज में हों। कई बार अंग्रेज़ी में किसी से फोन पर भी लम्बा वार्तालाप करते सुना, पर गोमती ने कभी कुछ पूछा नहीं। जब कभी भी वह उनके आस-पास उपस्थित होती तो बहू-बेटा अचानक अंग्रेज़ी में बतियाने लगते। पिछले कुछ दिनों से कभी-कभार बेटा माँ से लाड़-प्यार भी जताने लगा था। और तो और, सास की कही बातों पर अचानक बहू ने मुँह फुलाना भी छोड़ दिया था। यह सब देख गोमती मन ही मन बुदबुदाती, "हो ना हो कुछ घुईंयाँ तो पक रही हैं।” कभी वह अनजानी शंका में घिर कर ख़ुद ही मन को ढा लेती और कभी ख़ुद ही ढाढ़स दे फिर कामों को निपटाने में लग जाती। कुछ ही दिनों बाद घर का माहौल बदला-बदला सा लगने लगा। बहू-बेटा चहके-चहके से नज़र आने लगे। चारों ओर अचानक अबोली ख़ुशी का नाद सुनाई देने लगा। कुल मिला कर कहें तो घर में रामराज्य सा हो गया।

छुट्टी का दिन था, माँ ने मेज़ पर नाश्ता लगाया। मनपसंद व्यंजन देखते ही बेटा बोला, "अरे वाह! क्या बात है माँ, आज तो सब कुछ अपने बहू-बेटे की पसंद का बनाया है।"

फीकी सी मुस्कान देते गोमती बोली, "अरे खा लो बेटा, क्या पता फिर कब! अच्छा, यह तो बता कब का जाना तय किया है विदेश?”

यह सुनते ही, पति-पत्नि एक दूसरे को आवाक देखते रह गए। उनकी आँखें ऊपर की ऊपर ही टँगी रह गईं और मुँह तो जैसे निवाला चबाना ही भूल गया। बिना उनकी ओर ताके गोमती बोली, "अरे! खाओ भई, रुक क्यों गए? क्या अच्छा नहीं लगा?”

सकपकाते हुए से दोनों एक साथ ही बोले, “ नहीं-नहीं, बहुत स्वादिष्ट बना है। लेकिन माँ, तुम्हें किसने बताया हमारे जाने का?”

"तेरी माँ भले स्कूल ना गई हो बेटा, पर उसकी आँखें बहुत पढ़ी-लिखी हैं। जीवन में अनुभवों की कई जमातें पास की हैं उसने। फिर तुम्हारी गुलाबी मुस्कानों के पीछे का पढ़ लेना कौन मुश्किल है उसके लिए!"

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु
लघुकथा
कविता-सेदोका
कविता
सिनेमा चर्चा
कहानी
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
कविता-माहिया
विडियो
ऑडियो
लेखक की पुस्तकें