क्या हूँ मैं?
अजय अमिताभ 'सुमन'एक किरण,
चैतन्य के प्रकाश पर,
बिखरी हई,
मात्र एक किरण।
क्या हूँ मैं?
एक लहर,
परम ब्रह्म के,
असीमित सागर में,
बनती हुई,
मिटती हुई,
एक लहर।
क्या हूँ मैं?
एक झोंका,
हवा का,
अनंत ईश्वर के,
आकाश में।
इतराती हुई,
बल खाती हुई,
मुस्कुराती हुई,
लहराती हुई,
इठलाती हुई,
मिट जाती हुई।
एक हिस्सा,
अदना सा हिस्सा,
इस असीमित, अनंत,
आकाश का,
सागर का,
प्रकाश का।
अनजान,
इस बात से अनजान,
कि इन लहरों के,
झोकों के,
या किरणों के,
बनने का या मिटने का।
ना तो हर्ष ही मनाता है,
ये चैतन्य,
ये सागर,
ये आकाश,
ये प्रकाश,
और ना शोक ही।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- आख़िर कब तक आओगे?
- ईक्षण
- एकलव्य
- किरदार
- कैसे कोई जान रहा?
- क्या हूँ मैं?
- क्यों नर ऐसे होते हैं?
- चाणक्य जभी पूजित होंगे
- चिंगारी से जला नहीं जो
- चीर हरण
- जग में है संन्यास वहीं
- जुगनू जुगनू मिला मिलाकर बरगद पे चमकाता कौन
- देख अब सरकार में
- पौधों में रख आता कौन?
- बेईमानों के नमक का, क़र्ज़ा बहुत था भारी
- मन इच्छुक होता वनवासी
- मरघट वासी
- मानव स्वभाव
- मार्ग एक ही सही नहीं है
- मुझको हिंदुस्तान दिखता है
- मृत शेष
- रावण रण में फिर क्या होगा
- राष्ट्र का नेता कैसा हो?
- राह प्रभु की
- लकड़बग्घे
- शांति की आवाज़
- शोहरत की दौड़ में
- संबोधि के क्षण
- हौले कविता मैं गढ़ता हूँ
- क़लमकार को दुर्योधन में पाप नज़र ही आयेंगे
- फ़ुटपाथ पर रहने वाला
- कहानी
- सांस्कृतिक कथा
- सामाजिक आलेख
- सांस्कृतिक आलेख
- हास्य-व्यंग्य कविता
- नज़्म
- किशोर साहित्य कहानी
- कथा साहित्य
- विडियो
-
- ऑडियो
-