कफ़न

अजय अमिताभ 'सुमन' (अंक: 174, फरवरी प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

सीने में जल रहे है,
अगन दफ़न दफ़न से,
बुझे हैं ना कफ़न से,
अलात आदमी के?
 
ईमां नहीं है जग पे,
ना ख़ुद पे है भरोसा,
रुके कहाँ रुके हैं,
सवालात आदमी के?
 
दिन में हैं बेचैनी और,
रातों को उलझन,
सँभले नहीं सँभलते,
हयात आदमी के।
 
दो गज ज़मीं तक के,
छोड़े ना अवसर,
ख्वाहिशें बहुत हैं,
दिन रात आदमी के।
 
चिराग टिमटिमा रहा है,
आग आफताब पे,
ये वक़्त की बिसात पर,
औक़त आदमी के।
 
ख़ुदा भी इससे हारा,
इसे चाहिए जग सारा,
अजीब सी है फ़ितरत,
ख़यालात आदमी के।

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