बेईमानों के नमक का, क़र्ज़ा बहुत था भारी
अजय अमिताभ 'सुमन'बेईमानों के नमक का, क़र्ज़ा बहुत था भारी,
चाटी थी दीमक सारी, ओहदेदार की बीमारी।
कि कुर्सी के कच्चे चिट्ठे, किरदार खा गई,
ज़ालिम ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
घिसे हुए थे चप्पल, लाचार की कहानी,
कि धूल में सने सब, बेगार की ज़बानी।
दफ़्तर के जो थे मारे, अत्याचार खा गई,
ज़ालिम ये दीमक सारी, मक्कार खा गई,
थी भूख की ये मारी, आदत की थी लाचारी,
दफ़्तर के सारे सारे, मक्कारों से थी यारी,
कि सच के सारे सारे, चौकीदार खा गई,
ज़ालिम ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
तफ़तीश क्या करें हम, दफ़्तर के सब अधिकारी,
दीमक से भी सौदा करते, दीमक भी है व्यापारी।
कि झूठ के वो सारे, व्यापार खा गई,
ज़ालिम ये दीमक सारी, मक्कार खा गई।
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