कोयल है बोल गई
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’सुबह-सुबह पीपल पर
कोयल है बोल गई।
चाँदनी की डाल से
उतर गई रात,
जगा भोर करता है
किरणों से बात,
खिली कली भेद सभी,
फागुन से खोल गई।
सरसों की पुलई पर
तितली के पंख,
मंदिर में गूँज रहा
घोड़चढ़ा शंख,
शब्द की जलहरी में,
कविता को ढोल गई।
फूलों की टहनी में
काँटों की कील,
छींक रही सरदी में
पानी की झील,
एक कथा होली की,
गेहूँ को झोल गई।
भीग चुके केशों को
झाड़ गई दूब,
बादल के आँगन में
धूप गई ऊब,
गीत के गुलाबों को,
अभिधा ही तोल गई।
मौसम बासंतिक है
बजती है चंग,
सूरज की लाली से
साँझ भरी मंग,
पेड़ों के पात हिले
पुरवा है डोल गई।
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