करघे का कबीर
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’हथकरघे की साड़ी का
पीलापन हँसता है।
बैठा रहता है करघे संग
श्रम का सहज कबीर,
रोजीरोटी की तलाश का
निर्मल महज फकीर,
गाँवों के उद्योगों का
अपनापन हँसता है।
घरों घरों तक कुटी-शिल्प की
पहुँच रही है धूप,
ताने-बाने के तागों की
ख़ुशियों का प्रारूप,
खादी के उपहारों का
उद्घाटन हँसता है।
सूत कातने की रूई के
काव्यों का नव छंद,
भूख-प्यास का नया अंतरा,
नव प्रत्यय, नव चंद,
गांधीजी के सपनों का
परिचालन हँसता है।
सहकारी होने के अतुलित
भावों का यह गीत,
संवेदन के जलतरंग का
यह गुंजित संगीत,
भाई-चारे का अभिनव
अभिवादन हँसता है।
1 टिप्पणियाँ
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आभार आदरणीय घई साहब