अंतहीन टकराहट
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’इस संवेदनशील शहर में,
रहना किंतु सँभलकर रहना,
हो सकता है, कोई घटना,
नहीं की गई जिसकी आशा,
अनजाने में ही घट जाए।
भीड़ यहाँ है सचमुच लेकिन
मानवता का गीत नहीं है,
कोलाहलमय चली हवाएँ,
बाँसों का संगीत नहीं है,
उन्नतियों की जली ईंट से,
हरियाली का आँगन दहके,
हो सकता है, यह भी संभव,
धरती के परिसर में उमड़ी
सरिता का तट ही कट जाए।
सड़कों को घेरे रहते हैं,
माँगों के अभिप्राय नियोजित,
उचित और अनुचित के संकट,
षडयंत्रों के तर्क विमोचित,
स्वार्थपूर्ण हर राजनीति है,
शब्दों में है नहीं सरलता,
हो सकता है, न्यायशास्त्र के
गौतम पर ही, अधिकारों के
आँसू का बादल फट जाए।
अंतहीन टकराहट यह है,
निकटपने को बचना होगा,
एक नया इतिहास समुज्ज्वल,
क्षमताओं को रचना होगा,
सामाजिक इस लोकतंत्र की,
चुनी हुई मर्यादाओं का,
हो सकता है, कभी किसी दिन
जनमत खादी का धागा ही
ताने-बाने में बट जाए।
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