जागो! गाँव बहुत पिछड़े हैं
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’बंसी बजती है विकास की?
कहो! आज तक इन गाँवों में,
जागो! गाँव बहुत पिछड़े हैं।
चकबंदी के पाँव गाँव की,
पगडण्डी को मिटा गए हैं,
नई लकीरों से खेतों को,
एक सीध में लिटा गए हैं,
अभी तलक़ ‘दुखिया’ के तन पर,
धोती वही पुरानी जर्जर,
झूल रहे मैले चिथड़े हैं।
धुआँ चिमनियों का उठता है,
आसमान होता है काला,
काग़ज़ में सोया रहता है,
वर्तमान का नया उजाला,
पेड़ कटे, फसलों की खेती,
ईंटों से ही भरी पड़ी है,
भदई से फागुन बिछड़े हैं।
कुछ झोंपड़ियाँ सुप्त पड़ी हैं,
बस्ती में है गहन अँधेरा,
झाँका है प्रतिदिन पूरब से,
उगता सूरज, नया सवेरा,
महलों में सीमेंट घुसा है,
लानों में दूबों की मस्ती,
डीहों पर लेटे चिपड़े हैं।
शिक्षा की मंडी में केवल,
होती है अब कानाफूसी,
ठेके लेने देने में है,
तनिक नहीं कोई कंजूसी,
सूरा-सुराही के चक्कर में,
प्रचलन में बदलाव हुआ है,
शिष्टाचार बिके, बिगड़े हैं।