बूढ़ा चशमा
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’बूढ़ा चशमा, ढूँढ़ रहा है,
तले समोसे में,
इस जीवन का हल।
बुझी अँगीठी सुलगाती है,
एक रतौंधी साँस,
झूली चमड़ी और वक्ष की
रही यक्ष्मा खाँस,
चढ़ी कड़ाही में हँसती हैं,
ब्रेड पकौड़ों की,
गरम आँच के बल।
नहीं कहीं है ग्राहक कोई,
खड़े लोग कुछ दूर,
तना परिश्रम की आँखों की
सेवा का संतूर,
सोने का है एक बिछौना
और मुलायम है,
नम मिट्टी का तल।
आगे खुली कमीज़ की तरह,
देह सिली है शर्ट,
तनी हुई है एक अरगनी,
फटा टँगा है स्कर्ट,
थोड़ा-थोड़ा दीख रहा है,
बाल्टी में पानी,
जो है गंगाजल।
काली पड़ी पतीली में है,
नये समय की भूख,
खड़ा पास से देख रहा मग,
अंग गए हैं सूख,
बहा पसीना, झरना कोई,
धुआँधार वाला,
या है बहता नल।
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