कोई साँझ अकेली होती
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’चौथेपन के वृन्दावन में
कोई साँझ अकेली होती
हरी दूब पर गीत टहलते
जिनिगी एक पहेली होती
धूप दूधिया गाँव समेटे
किसी रात से मिलने जाती
कोई अलका पथ पर मोती
अनजाने में ही बिखराती
बरगद की छैया के नीचे
शिवता एक सहेली होती
पगडंडी पर रोज़ गु्ज़रती
कोई बतियाहट बतियाती
खिली चाँदनी हँसती रहती
तारों सी चुनरी लहराती
विषम विषमतायें भी मिलतीं
खाली नहीं हथेली होती
कई अमावस मिलकर आतीं
और बतातीं नई कहानी
आँखों के आंगन में गिरता
सावन के बादल का पानी
शब्दों के पत्थर पर हँसती
कोई नई हवेली होती
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