खेत पके होंगे गेहूँ के
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’खेत पके होंगे गेहूँ के
गाँव चले हम,
करनी-बसुली-कटिया करने,
अरे! कोरोना! तुझे नमस्ते.
शहर बंद है, बैठे-बैठे
तंग करेगी भूख-मजूरी,
तंग करेंगे हाथ-पैर ये,
सामाजिकता की वह दूरी,
ठेला पड़ा रहेगा घर में,
गाँव चले हम,
आलू-मेथी-धनिया करने
अरे! कोरोना! तुझे नमस्ते.
छुआ-छूत सड़कों तक उतरी,
और चटखनी डरा रही है,
मिलना-जुलना बंद हुआ है,
गौरैया भी परा रही है,
शंका में जब मानवता है,
गाँव चले हम,
छानी-छप्पर-नरिया करने,
अरे! कोरोना! तुझे नमस्ते.
मुँह पर मास्क लगा हर कोई,
साँसों की चिंता करता है,
स्वयं सुरक्षितता की ख़ातिर,
आचारिक हिंसा करता है,
इन सामाजिक बदलावों से,
गाँव चले हम,
चौका-बासन-खटिया करने,
अरे! कोरोना! तुझे नमस्ते.
स्वाभिमान की हम खाते हैं,
नहीं किसी की मदद चाहिए,
एक माह का राशन-पानी,
एक हज़ारी नगद चाहिए,
हम अपने मन के मालिक हैं.
गाँव चले हम,
बुधई-बुधिया-हरिया करने,
अरे! कोरोना! तुझे नमस्ते।
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