एक मैं

डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’ (अंक: 279, जून द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

मेरी वेदनाएँ बहुत बड़ी हैं—तुम्हारे से, 
अपनी तीखी नोकों से चुभोती रहती हैं, 
मेरे कलेवर को, मेरे मन को—
हैं तो तुम्हारे पास भी
मुझसे अधिक घनी किन्तु स्निग्ध। 
मैं स्वयं को उनके बीच से
ऐसे ही ले जाना चाहती हूँ, 
जैसे साँप जाता है कँटीली झाड़ियों में
अपनी केंचुली उतारने के लिये। 
 
आँख खुलें और साफ़ देख सकूँ, 
मैं अपनी ज़िन्दगी को। 
मगर तुमने उनसे भी सहकारिता दाख़िल कर ली है, 
मैं सो जाती हूँ गहरी नींद
खुरदुरे बिस्तर पर भी
मगर तुमको नहीं आती है नींद
मख़मली गद्दों पर भी
इसलिए तुम रात में बैचेन, और मैं दिन में। 
 
हर रोज़ सैकड़ों मंदिरों से गुज़रती हूँ, 
मगर तुमने इन्हें भी अपना जीवन समझ लिया है। 
अहसान वेदना का तुम्हें कम है, 
क्योंकि—आँखों पर अहमन्यता की
मोटी-सी केंचुली चढ़ी है। 
मुझे छोटी-सी भी छोड़ जाती है—
कसक, वेदना, टीस। 
 
मैं यह सब खुली आँखों से देख रही हूँ, 
तुम जो फ़ैसले करते हो और
समझते हो उसे अपना जीवन, 
किन्तु मेरी विडम्बना है कि—
मैं उनके पर्याय ढूँढ़ लेती हूँ, 
क्योंकि मेरे अन्तरतम में
बिखर गया है सब॥

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें