ऐसे समेट लेना मुझको
डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
तुम जब भी मिलो
मुझसे
मुझे ऐसे समेट लेना
जैसे कि हम प्रथम बार
मिले हों . . .
समेट लेना ऐसे
कि–
मेरा सारा दर्द
निथर जाए
और—
मेरी सारी व्यथाएँ
दम तोड़ दें
मेरे अंदर ही
धराशायी हो जाएँ
मेरी सारी उदासियों की
असंख्य मंज़िलें
जब मिलो न मुझसे
तो ऐसे समेट लेना
जैसे एक टूटते मकां को
समेटा जाता है,
उस मकां को टूटता देख
रो पड़ता है
उसका एक-एक कोना . . .
ऐसे ही समेट लेना
कि मैं बिलखकर रो पड़ूँ
अपने मकां को
बचाने के लिए . . .
और—
मेरे आँसू बहा ले जायें
मेरे एकाकीपन को . . .
रह जाये उसमें केवल
तुम्हारा प्रेम . . .
ऐसे समेट लेना
तुम मुझको . . .!!