दो अवरक्त रेखायें
डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
दो अवरक्त रेखाओं से हम . . .
चलते जा रहे हैं सहचर . . .
या दूरवर्ती . . . फ़ासिले पर . . .
या फिर आस-पासी . . .
इस परिकल्पना के साथ . . .
कि कहीं दूर—
गगन के उस पार . . .
अभ्र के ऊपर कहीं . . .॥
कहीं तो मिल जायेंगी ये रेखाएँ . . .
या
मेरी तृप्ति के निमित्त कहीं . . .
कि-
ना भी मिलो तो भी
मेरे साथ हो . . .
अनवरत प्रयास—
तुम्हारा मेरे साथ होने का
मग़रूर करता है मुझे॥
तुम्हारा-मेरे साथ
होने मात्र को . . .!
ये अनुभूति अतुलनीय है मेरी
जानती हूँ . . .
दो अवरक्त रेखाएँ
कभी नहीं मिलती . . .
भले ही उन्हें कितना भी
बढ़ाया जाए . . .
कभी दिशा बदलने के
लिए ही सही . . .॥
फिर भी मुझे लगता है कि-
मिलती ज़रूर हैं . . .॥
मिलेंगी भी ज़रूर . . .!!
इसी अपेक्षा में
कि—
शायद हम दोनों भी
मिलेंगे ज़रूर रेखाओं
के एकाकार होने पर
उन ग़ैर प्रतिच्छेद रेखाओं
की तरह . . . . . .!!!