उनींदी है शाम
डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
आज कैसी उनींदी है शाम,
मेरे घर पर उतर आई है।
मुँडेर की बिखरी धूप,
आँगन में सिमट आई है॥
उड़ गए सब पांखी,
बैठे थे नीम की छाँव में
आज अकेली देख,
आँख मेरी भर आईं है॥
एक-एक पल बीता जैसे,
लम्बी-लम्बी काली रातें हैं।
बीते साथ तुम्हारे पल-छिन,
छाया-सी घनी बन आई है॥
बीता शिशिर-हेमंत,
बसन्त भी बीत गया।
तपता ग्रीष्म भी कल ही गया,
आषाढ़ी घटाएँ घिर आई हैं॥
जाएगा बीत शरद भी ऐसे,
जैसे सब बीत गया।
पर गया नहीं एक पल भी ऐसा,
जिसमें याद न तेरी आई है॥