विश्वास का राग

01-01-2025

विश्वास का राग

डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’ (अंक: 268, जनवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

यह विश्वास का जो राग है न—
वह समागम के लिए नहीं होता, 
नहीं होता है—
प्रतिपल साथ गमन के लिये
वह अरण्यवास काटता है, 
वह शेष रह जाता है—
अनकहा और अनसुना सुनने के लिए
हाँ, वह होता है—
एक-दूसरे का पूरक, 
और सदैव अधूरा बना रहने के लिए, 
वह केवल तृप्ति कर पाता है . . .
कि वह है किसी के वक्षस्थल में, 
कि वह किसी के पेशानी में है, 
कि कोई उसकी ख़बर भी रखता है, 
उसकी सुधियाँ बुनता है। 
कोई उसके लिए
अनायास आनंदित होता है, 
या उसकी स्मृति में आँखें नमकर
फेर भी लेता है, 
इज़हार नहीं करता। 
 
यह एक विश्वास का जो राग है न—
यह उत्सव नहीं मना पाता, 
लेकिन व्रत रखता है, 
और अपने उस दो घूँट राग के साथ
उसे जीवित रखता है—
प्रतिपल . . .
प्रतिक्षण . . . 
 
मेरे विश्वास का राग भी ऐसा ही है . . . 
उसके अंतर्मन, अनुमस्तिष्क में
क्या घट-बुन रहा है, 
नहीं जानता, 
और न ही मैं उसे जानना चाहती हूँ, 
हाँ, 
पर वो मेरे ह्रुदय, मेरी स्मृतियों में है
और सदैव बना रहेगा॥

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