क्या खोया, क्या पाया

01-01-2025

क्या खोया, क्या पाया

डॉ. पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’ (अंक: 268, जनवरी प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

उन गलियों से जब भी गुज़री, 
आँखों में अश्रुधार लिए, 
सोच रही थी चलते-चलते
कि—
यहाँ मैंने क्या खोया, क्या पाया है। 
पाकर सब कुछ फिर सब कुछ खोना, 
क्या यही ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा है, 
जब है फिर ये खोना या फिर पाना, 
तो क्यूँ यहाँ लौट कर आना है? 
वैसे ही तो सब कुछ खोया, 
फिर क्यूँ ये यादों का समुंदर है, 
सोच रही थी चलते-चलते, 
कि—
क्या यही खोना और पाना है? 
सोचती इस रास्ते से जल्दी-जल्दी, 
अपने पग बढ़ाकर गुज़र जाऊँ, 
पर इस रास्ते ने मुझे पकड़कर, 
जो पूछा, जिससे में सिहर उठी, 
इस गली में घर के चौखट पर, 
दो आँखें रस्ता तकती थीं, 
कहाँ खो गईं वे आँखें? 
जिन्हें देख मैं ख़ुश हो जाती थी। 
बहुत कठिन है अब इन गलियों से गुज़रना, 
सोच रही थी चलते-चलते, 
कि—
क्या यही खोना और पाना है? 
उन गलियों में न रहे, 
अब कोई जज़्बात भी, 
फिर भी भरा हुआ था, 
दिल का कोना—
चले गये जो छोड़कर मुझे वो, 
हाँ, क्या कहीं यही खोना है, 
झड़ गये जो शाखों से पत्ते सब जो, 
क्या नये मौसम में फिर वो आयेंगे? 
सोच रही थी चलते-चलते, 
कि—
क्या यही खोना और पाना है . . .? 

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