डायरी का पन्ना – 009 : जेबकतरा

01-10-2021

डायरी का पन्ना – 009 : जेबकतरा

विजय विक्रान्त (अंक: 190, अक्टूबर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

एक मशहूर कहावत है कि “दूसरे की थाली में परोसा हुआ बैंगन भी लड्डू लगता है”। अपना जीवन तो हम सब जीते ही हैं लेकिन दूसरे की ज़िन्दगी में झाँक कर और उसे जी कर ही असलियत का पता चलता है। इस कड़ी में अलग अलग पेशों के लोगों के जीवन पर आधारित जीने का प्रयास किया है।

धन्धे के सिलसिले में हरिद्वार जाने के लिये पहले ही से मैंने उज्जल टैक्सी के मैनेजर से बात कर ली थी कि उसकी टैक्सी मुझे सुबह पाँच बजे घर से आकर ले जायेगी। छह बजने को आये और कम्बख़्त टैक्सी या टैक्सी वाले का कोई पता ठिकाना ही नहीं। जल्दी से नया सूट पहन कर मैं तैयार होकर हरिद्वार रोड पर खड़ा हो गया; यह सोचकर कि किसी प्राइवेट कार वाले से राईड मिल जायेगी। कई बार कोशिश करने के बावजूद आख़िर एक कार रुक ही गई। ड्राईवर के जानने पर कि मुझे हरिद्वार जाना है, उसने कार में बैठने का संकेत दिया। कार की अगली सीटों पर मियाँ और बीवी बैठे थे। पीछे का दरवाज़ा खोल कर मैं ड्राईवर वाली साईड पर बैठ गया। बातों के सिलसिले से ऐसा लगा कि ड्राईवर, जिसका नाम रघुवीर सहाय था, सहारनपुर का कोई बहुत बड़ा ठेकेदार है और उसकी बीवी रजनी पाण्डे वहाँ डी.ए.वी. कालिज में विज्ञान की प्रोफ़ैसर है। रघुवीर के पूछने पर कि मैं क्या करता हूँ, मैंने कहा, "अगर मैं आपको सच सच बता दूँ तो क्या आप मुझे गाड़ी से उतार तो नहीं दोगे?" रघुवीर के आश्वासन दिलाने पर मैंने बताया कि "मैं एक जेबकतरा हूँ"। मेरा यह कहते ही दोनों मियाँ बीवी एक दम चुप हो गये, मानो साँप सूँघ गया हो। थोड़ी देर में मैंने देखा कि एक पुलिस वाले ने रघुवीर की कार रोक दी है और उसके बहुत गिड़गिड़ाने के बावजूद भी अपनी किताब निकाल कर चालान का टिकट उसे थमा दिया। मैं समझ गया था कि रघुवीर को यह टिकट मेरी वज़ह से ही मिला है। मेरे “भाई साहब मुझे यहीं उतार दीजिये” कहने पर रघुवीर ने गाड़ी रोक दी। बाहर उतर कर मैंने दोनों को सम्बोधित करते हुये कहा, “आज मेरी वज़ह से आपको जो दिमाग़ी परेशानी और चालान का हर्जाना भुगतना पड़ा है, उसकी मैं माफ़ी चाहता हूँ और जाने से पहले आपकी ख़िदमत में एक छोटा सा नज़राना पेश करना चाहता हूँ।“ इतना कहकर पुलिस वाले की वो किताब जिस में तमाम चालान दर्ज थे रघुवीर के हाथों में थमाकर और दोनों हाथ जोड़कर मैं तो भीड़ में ग़ायब हो गया।

मेरा अगला पड़ाव ’ललित सिनेमा’ था जहाँ पर “कजरारे” पिक्चर लगी हुई थी। १२ से ३ वाले शो की टिकटों के लिये लम्बी लाईन लगी हुई थी। इसी बीच मेरा जमूरा (चेला) शंकर भी आ गया था और मेरे कहने पर वो टिकट की लाईन में लग गया था। थोड़ी देर में मेरे दो और साथी ’मुन्शी’ और ’बांके’ भी आ गये। हम तीनों अलग-अलग जगह खड़े हो गये और लाईन में लगे लोगों को गिद्ध की निगाहों से देख रहे थे। इशारा पाते ही शंकर ज़ोर से चिल्ला कर बोला, “देखो भाईयो किसी ने मेरी जेब काट ली।" उसका चिल्लाना सुन सभी लोगों के हाथ एकाएक अपनी अपनी अपनी जेबों पर पहुँचे जहाँ उन्होंने अपना बटुआ रक्खा हुआ था। मेरा, बांके और मुन्शी का काम आसान हो गया। अच्छी ख़ासी आमदनी हुई उस दिन। 

हर-की-पौड़ी पर भीड़ शुरू होने लगी थी। डुबकी से पहले लोग शॉपिंग के लिये बेताब थे। भीड़ तो अपने धन्धे के लिये सदा से अमृतबाण रही है। एक दुकान पर अधिक भीड़ देखी तो मैं भी उन में शामिल हो गया और अपना काम शुरू कर दिया। नतीजा यह कि उन नादान आदमियों को जो अपना बटुआ हिप पाकेट में रखते हैं, अपने बटुओं से बिना अलविदा लेनी पड़ी। 

इस पेशे में पुलिस वालों की मेहरबानी का साया बहुत ज़रूरी है। अगर ऐसा कहा जाये कि पुलिस वाले हमारी जेब में रहते हैं तो ग़लत नहीं होगा। कभी-कभी जाने अनजाने में ऐसा भी हो जाता था कि हमारे शिकार की पहुँच हमारे से भी ऊपर तक होती थी। ऐसे हालात में हमें पुलिस का सन्देसा मिल जाता था और अपनी महनत की कमाई से हाथ धोना पड़ता था। क़िस्मत की मार देखिये, आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। शहर के थानेदार की बीवी के रिश्तेदार गंगा स्नान के लिये आये हुये थे। मुझे क्या मालूम कि मैंने थानेदार के साले की जेब काट ली है। फिर क्या था, फ़ौरन थाने में पेश होने का हुक्म हुआ। मैंने भी थाने जाकर, बिना किसी चूं-चां किये, थानेदार के साले का बटुआ वापस कर दिया। जीजाजी की वज़ह से बटुआ  सही सलामत मिलने पर और मुझे अपने सामने देखकर साले साहब ने ख़ुश होकर गर्मागर्म समोस, पकौड़े और चाय से हमारी ख़ातिर की।

थाने के दूसरे कमरे से काफ़ी शोर आ रहा था। जाकर देखा कि एक एन.आर.आई अपनी जेब कटने की रपट लिखवाने आया है। पहले तो थाने के मुन्शी ने यह कहकर कि “साहब यह तो यहाँ पर रोज़ का क़िस्सा है। समझ लो कि तीर्थ पर गये थे और वहाँ पर गुप्तदान के रूप में अपना बटुआ दे दिया। साहब आपको तो गुप्तदान की महिमा मालूम है कि गुप्तदान सब से बड़ा दान माना जाता है” रपट लिखने से इंकार कर दिया। एन.आर.आई के बहुत कहने सुनने पर मुन्शी जी ने सुझाव दिया कि आप यह रपट लिखवायें कि “बटुआ गिर गया है” तो मैं अभी अपने रजिस्टर में दर्ज करने को तैयार हूँ। इस पर भी जब वो एन.आर.आई नहीं माना तो मुन्शी ने झख मारकर रपट लिख ली। अब तक हम ने चाय, समोसे और पकौड़ों का पूरा आनन्द उठा लिया था फिर भी थोड़ी-थोड़ी भूख लगनी शुरू हो गयी थी।

हालाँकि आज का दिन बहुत थका देने वाला दिन था, फिर भी अच्छी कमाई हो गई। पास के एवरेस्ट होटल में भोजन के साथ-साथ एक घूँट लगाकर लम्बी तानकर सो गया।
 

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