कैनेडा के ऐटलान्टिक प्रान्त नोवा स्कोशिया में पहला हिन्दी रेडियो स्टेशन

15-03-2022

कैनेडा के ऐटलान्टिक प्रान्त नोवा स्कोशिया में पहला हिन्दी रेडियो स्टेशन

विजय विक्रान्त (अंक: 201, मार्च द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

मॉन्ट्रियाल में सात साल रहने के बाद 1972 में, नये पावर प्लांट के प्रोजेक्ट के सिलसिले में, मेरा तबादला कैनेडा के ऐटलान्टिक प्रान्त नोवा स्कोशिया की राजधानी हैलिफ़ैक्स का हो गया। हैलिफ़ैक्स पहुँच कर पता चला कि वहाँ पर भारतियों की संख्या बहुत कम थी और मनोरंजन और भारतीय ग्रोसरी के साधन भी गिने चुने होते थे। शुरू शुरू में तो काम पर बहुत व्यस्तता रही। शीघ्र ही कुछ नये मित्र भी बन गये। इन्हीं मित्रों के कहने पर मैं इण्डो-कैनेडा एसोसियेशन ऑफ़ नोवा स्कोशिया (ICANS) का सदस्य बन गया। कुछ महीने बाद ICANS के चुनावों में मुझे खड़ा होने को कहा और मेरे देखते देखते ही मुझे महामन्त्री पद की ज़िम्मेवारी सौंप दी गई। उस समय मनोरंजन के लिये किसी भी एक भारतीय के घर में गीतों, कवि सम्मेलनों, मुशायरों इत्यादि की पॉटलक महफ़िलें जमती थीं। गर्मियों में कभी-कभी पिकनिक का प्रोग्राम भी बन जाता था।

इसी दौरान ICANS के सौजन्य से जून 1973 के आसपास में मेरी मुलाक़ात कनेडियन मल्टीकल्चरल काउंसिल ऑफ़ नोवा स्कोशिया (Canadian Multicultural Council of Nova Scotia) से हुई। काउंसिल की एक मीटिंग में मैंने हैलिफ़ैक्स में किसी भी एक स्थानीय रेडियो स्टेशन पर हिन्दी प्रोग्राम प्रसारित करने का प्रस्ताव रखा। वहाँ बैठे और मैम्बरों को मेरी बात जँच गई। काउंसिल की अगली मीटिंग में मुझे ख़बर मिली कि 1974 में हैलिफ़ैक्स का रेडियो स़टेशन CHFX- FM 101.9 आधे घण्टे का हिन्दी प्रोग्राम ब्रॉडकास्ट करने के लिये राज़ी हो गया है। इस योजना की शर्त यह थी कि काउंसिल केवल रेडियो स्टेशन का समय देगी और बाक़ी के सारे ख़र्चे ICANS को ख़ुद उठाने होंगे। ICANS की कार्यकारिणी समिति की बैठक में इस शर्त की मंज़ूरी के बाद उनके प्रतिनिधि के रूप में प्रोग्रामिंग और ब्रॉडकास्टिंग की ज़िम्मेवारी भी मेरे कन्धों पर आन पड़ी। प्लान के अनुसार 25 फ़रवरी 1975 को पहली ब्रॉडकास्ट सायँ 7:30 बजे होनी निश्चित हुई और इस तारीख़ से तीन दिन पहले मुझे रेडियो स्टेशन पर जाकर प्रोग्राम रिकार्ड करने का सुझाव दिया। 

सबसे पहले तो मैंने अपने सभी मित्रों को 25 फ़रवरी 1975 को होने वाले नये प्रोग्राम के बारे में बताया और उन्हें पूरी लगन से और सभी मित्रों को फ़ोन करने को कहा। यह ख़बर सुन कर अपनी कम्यूनिटी में तो ख़ुशी की एक लहर दौड़ गई। यह ख़बर हैलिफ़ैक्स, इसके साथ जुड़े शहर डार्टमथ और आसपास में रहने वाले सभी भारतीयों में फ़ैल गई। लोगों की प्रतिक्रिया से ऐसा लगने लगा था कि 25 फ़रवरी की शाम 7:30 बजे होने वाले प्रोग्राम की तारीख़ और समय सब ने अपने अपने कैलैण्डर में नोट कर लिये हैं। 

मेरी अगली चुनौती प्रोग्राम की तैयारी की थी। थोड़ी घबराहट भी थी कि कहीं लुटिया डूब न जाये और मामला बंटाधार न हो जाये। 1975 में आज जैसी टैकनॉलॉजी तो थी नहीं। क्योंकि मेरे पास अपने निजी 33/45 RPM के कोई 70 LP वाइनल के रिकॉर्ड थे इसीलिये मैंने उन्हीं में से गाने चुनना ठीक समझा। अब कौन सा गाना किस क्रम में लगाना है, यहीं आकर अपनी गाड़ी कुछ अटक सी गई थी। गानों को कैसे व्यवस्थित करना है, इस बारे में मदद के लिये मैंने रेडियो स्टेशन फ़ोन किया।

वहाँ से जो सलाह मिली उस के हिसाब से सब से पहले तो रिकॉर्ड छाँटे और गानों की लिस्ट बनाई जो बजाये जा सकते थे। फिर उन गानों को बजा कर सुना कि वो कितने कितने लम्बे हैं। आधे घण्टे के प्रोग्राम के लिये सारे गाने 23 से 24 मिनट में पूरे हो जाने चाहिये थे। उसी हिसाब से गानों का चुनाव किया। उसके बाद एक लिस्ट बनाई कि वो गाने किस क्रम में बजाये जायेंगे। उसके बाद, गाना बजाने से पहले मुझे क्या बोलना है उसके नोट भी तैयार किये और अपने को टाईम किया कि मेरे बोलने का समत 5 मिनट के अन्दर अन्दर ही हो। 

स्टुडियो जाने से पहले बजाने वाले रिकॉर्डों को जैकिट से निकाल कर पहले बजने वाले रिकॉर्ड को सब से ऊपर रखा।फिर उसके बाद नम्बर 2, 3, इत्यादि। यह सब करते हुये इस बात का ख़ास ध्यान रख़ा कि जिस साइड पर गाना है वही साइड ऊपर रखनी है। रिकॉर्डिंग टैक्नीशयन के लिये एक अलग से लिस्ट भी बनाई जिस में हर गाने के लिये रिकॉर्ड नम्बर (1, 2 ,3 ...), रिकॉर्ड साईड (1 या 2) और ट्रैक नम्बर (1, 2, 3 ...) था।

यह सब होमवर्क कर के बाद मैं 22 फ़रवरी को ठीक 10:30 बजे CHFX-FM के स्टूडियो पहुँच गया। वहाँ मेरा पहला परिचय जॉन ग्राहम, जो रिकॉर्डिंग टैक्नीशयन था, उस से हुआ। सब से पहले मैंने जॉन को आज के गानों की जो लिस्ट बनाई थी थमा दी। थोड़ी औपचारिकताओं के बाद जॉन ने मुझे रिकॉर्डिंग करने और इशारों से बात करने के गुर समझाये। आधे घण्टे की रिकॉर्डिंग हम ने कोई एक घण्टे में पूरी की। कुछ दिन बाद डेविड बैर्ड मेरा स्थायी रिकॉर्डिंग टैक्नीशयन बन गया।

25 तारीख़ को ठीक साढ़े सात बजे प्रोग्राम शुरू हो गया। मैं भी दिल को थामे हुये प्रोग्राम सुनने को बेताब था। अपना और गानों के परिचय के साथ जो गाने उस दिन मैंने बजाये थे वो थे: 

  1.  मौसम है आशिकाना - पाकीज़ा। 

  2.  रूप तेरा ऐसा दर्पण में न समाये - इक बार मुसकुरा दो 

  3. झुमका गिरा रे - मेरा साया 

  4. जाने वो कैसे लोग थे - प्यासा 

  5. ए मेरे प्यारे वतन - काबुलीवाला 

  6. शोखियों में घोला जाये - प्रेम पुजारी 

  7. ए मालिक तेरे बन्दे हम - दो आँखें बारह हाथ

प्रोग्राम समाप्त होने के बाद कहाँ तो मैं घबरा रहा था कि लोग क्या कहेंगे लेकिन बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिलने पर मेरी हिम्मत और भी बढ़ गई। प्रतिक्रिया बहुत अच्छी मिलती रही और दोस्तों की फ़रमाइशें भी ख़ूब आने लगीं। गानों का लिमिटेड स्टॉक होने के कारण फ़रमाइशें पूरी करने की हमेशा कोशिश रहती थी। अगर मेरे पास कोई फर्माईशी गाना नहीं होता था तो कई बार तो फ़रमाइशें करने वाले मुझे अपना रिकॉर्ड दे जाते थे कि भई, इसको बजा देना।

मार्च 1974 में लता मंगेश्कर जी ने लण्डन में तीन दिन का एक कॉन्सर्ट किया था। उनकी उसी याद को ताज़ा करने के लिये 6 जनवरी, 1976 को जो मैंने प्रोग्राम दिया था, उस में लता जी के कॉन्सर्ट में गाये गाने को और उसी गाने को मूवी में गाये को बजाया था। लोगों ने इस को बहुत पसन्द किया। जिन जिन गानों की तुलना की थी वो थे।

  1. आयेगा आने वाला – महल

  2. बेकस पे करम कीजिये सरकारे मदीना – मुग़ले आज़म

  3. बिन्दिया चमकेगी – दो रास्ते

  4. इन्हीं लोगों ने – पाकीज़ा

समय के साथ साथ रेडियो स्टेशन का और जिस प्रॉजैक्ट पर मैं काम कर रहा था उसका भी प्रैशर बढ़ता जा रहा था।

मुख्य चुनौतियाँ जो मेरे सामने आयीं और उन्हें कैसे सम्भाला वो आप से साझा करना चाहता हूँ।

समय समय पर अपने प्रतिनिधि के लिये मैंने कुछ मित्रों को अपने साथ स्टूडियो ले जाना शुरू कर दिया और उनको बोलने का मौक़ा भी दिया। कुछ समय बाद अपनी एक अच्छी ख़ासी टीम बन गई। इस टीम में पुरुष और महिलायें दोनों थे।

  • व्यस्तता के कारण, कई बार तो अपने नोट्स और रिकॉर्ड किसी मित्र को दे देता था कि जाओ और प्रोग्राम सँभालो। 

  • फिर मैंने टीम से कहा कि अगली बार सारा प्रोग्राम तुम सैट करो। यह प्रयोग बहुत सफ़ल रहा और इस से लोगों का आत्मविश्वास भी बढ़ने लगा।

  • एक दो बार तो मैं बच्चों को भी लाया था। अपने बच्चे की आवाज़ को रेडियो पर कौन माँ बाप सुनना पसन्द नहीं करेगा। यह प्रयोग भी बहुत सफ़ल रहा।

  • लोगों की दिलचस्पी बना रहे इसके लिये, उनकी फ़रमाइशों के गाने बजाने शुरू कर दिये। गाने के साथ साथ जब उनका नाम भी उद्घोषित होता था तो उनकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था। सुनने वाले लोग बढ़ने लगे।

  • होली, दीवाली, शिवरात्री पर्व पर विशेष गाने। 

  • सार्वजनिक घोषणाएँ

  • चुने हुये विषय के गाने जैसे कव्वाली, एक ही गीतकार के गीत, एक ही गायक के गीत, कभी कभी शास्त्रिय संगीत।

कुछ महीने बाद हम ने एक नया प्रयोग शुरू किया। इस प्रयोग में प्रोग्राम के अन्त में स्टुडियो की फ़ोन लाईनें (425-5210) खोल कर एक पाँच सैकण्ड का रहस्यपूर्ण (mystery) गाना बजाना शुरू कर दिया। गाना किस फ़िल्म का है, किस ने गाया है और इसका संगीत किस ने दिया है के लिये हम ने लोग को स्टुडियो में कॉल करने के लिये प्रोत्साहित किया। राजू हजेला और मुंजाल पारेख (जो आज दोनों बहुत ही सफल चिकत्सिक हैं) नाम के दो स्वैच्छिक कार्यकरता फोन सम्भालते थे। अगले सप्ताह जीतने वाले का नाम उद्घोषित होता था और इनाम मैं दो सिनेमा की टिकटें जो मुझे हैलिफ़ैक्स के ओडियन सिनेमा के मालिक से फ़्री में मिल जाती थीं दी जाती थीं। आप स्वयँ ही अन्दाज़ा लगाइये कि जब जीतने वालों के नाम बोले जाते थे तो उनको कितना अच्छा लगता होगा। कभी कभी टोरोंटो में पुराने जीतने वालों से मुलाक़ात हो जाती है तो बीते हुये दिन फ़िर तरोताज़ा हो जाते हैं।

आज के हालात को देखते हुये मैं जब तुलना करता हूँ कि कैसे बहुत ही सीमित साधनों के होते हुये भी रेडियो स्टेशनों पर ब्रॉडकास्टिंग करने और सुनने का कितना आनन्द आता था। गानों की उपलब्धि बहुत सीमित होती थी। मेरे पास जो अपना काफ़ी अच्छा स्टॉक था वो बहुत काम आया। शहर में एक भी ऐसी दुकान नहीं थी जहाँ से आप गाने ख़रीद सकते हों। अपने मनोरंजन के लिये लोगों के पास रील-टू-रील टेप रिकॉर्डर होते थे और वहीं से हम आपस में गाने शेयर तो कर लेते थे मगर उन्हें रेडियो स्टेशन पर बजाना इतना आसान नहीं था।

उन दिनों जिस आधे घण्टे के प्रोग्राम को तैयार करने में दो तीन घण्टे लग जाते थे वो आज की टैकनॉलोजी में कितने कम समय में हो जाता है, मैंने कभी सोचा भी नहीं था। सब से बड़ी चुनौती गाने के टाइमिंग की होती थी। उसे बजाकर ही पता चलता था कि वो कितना लम्बा है। आज के युग में यह समस्या नहीं है। यदि किसी ऑडियो टेप में से दो या अधिक गाने रिकार्ड करने पड़ जायें तो समय तो लगेगा ही, साथ साथ गाना ढूँढ़ने में और अलाइन करने में कितनी सिरदर्दी होती थी बस पूछो मत। आज के माहौल में हर ट्रैक की अपनी पहचान है। रहा लिखने का काम? वो तो सब हाथ से ही होता था। सम्पादित करते हुये यदि कोई ग़लती रह गई हो या कुछ बदलाव करना हो तो सब कुछ दुबारा लिखो, तिबारा लिखो। लिखने की इस परेशानी से तो अब हमेशा के लिये छुट्टी।

उन दिनों हम इन्जीनियर्स की एक अपने ही किस्म की छवि होती थी। यदि छवि के स्थान पर जाति शब्द प्रयोग किया जाये तो एकदम उपयुक्त होगा। जब मेरी कम्पनी को मेरी इन हरकतों का पता चला तो उन से रहा नहीं गया।  कम्पनी के कहने पर हैलिफ़ैक्स में जो हमारी कम्पनी की पत्रिका का सम्पादक जॉन बैज़ैग था वो एक दिन मेरे पास आया और मेरे इस शौक के बारे में पूरी जानकारी माँगी जो मैंने उसे दे दी। शाम को हम दोनों CHFX-FM के स्टुडियो गये जहाँ जॉन ने मेरी कुछ फ़ोटो भी ख़ेंची। मेरे इस शौक की हैड ऑफ़िस में जो प्रतिक्रिया हुई उसकी पूरी जानकारी आपको संलगित दो तस्वीरों से मिल जायेगी।

समय के साथ साथ मित्रो, मेरा विदा लेने का समय भी आ गया था। पैरों में चक्कर तो हमेशा से ही रहा है। मेरा प्रॉजैक्ट भी समाप्त होने को आया था। रेडियो स्टेशन छोड़ते हुये दुख तो हो रहा था मगर इस बात की तसल्ली भी थी कि मैंने काफ़ी लोगों को ट्रेन कर दिया था और इसी विश्वास के साथ सब से अलविदा ली।

4नवम्बर1976 को मैंने हैलिफ़ैक्स छोड़ दिया था और अगली नियुक्ति के लिये परिवार सहित ईरान को अपना नया घर बना लिया। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ऐतिहासिक
सिनेमा चर्चा
स्मृति लेख
सांस्कृतिक कथा
ललित निबन्ध
कविता
किशोर साहित्य कहानी
लोक कथा
आप-बीती
विडियो
ऑडियो