अभी नहीं 2 - चाय का दूध बहुत महँगा पड़ा : 1961
विजय विक्रान्तजीवन की कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो अपनी छाप छोड़ कर चली तो जाती हैं मगर जब जब उनकी याद आती है तो एकाएक “पकपी सी उठने लगतीहै। मेरे साथ भी कई बार कुछ ऐसा ही हुआ। हर बार लगता था कि जीवन का बस अन्त हो गया है मगर हर बार कहीं से यह आवाज़ आती थी - अभी नहीं... अभी नहीं... अभी नहीं...
चाय का दूध बहुत महँगा पड़ा :1961
और सालों की भाँति इंजिनियरिंग के तृतीय वर्ष के विद्यार्थी सदा कलकत्ता जाते थे। इस साल हमारी कक्षा की बारी थी। यात्रा हेतु हम ने दो बोगियाँ बुक करा लीं। क्योंकि सफर तीन सप्ताह का था हमने अपनी अपनी जगह लेकर आराम से डेरा लगा दिया। साथ में चाय बनाने का भी बन्दोबस्त था।
हमें जहाँ जहाँ रुकना होता था वहाँ हमारी बोगी काट कर शैड में लगा दी जाती थी। वहाँ जो देखना होता था उसके बाद अगले पड़ाव के लिए नियमित समय पर निश्चित गाड़ी के साथ हमारी यात्रा फिर आरम्भ हो जाती थी। हँसी खुशी में समय कैसे बीता पता नहीं। हम चलते रहे, रुकते रहे और फिर चलते रहे। हमारा अगला पड़ाव बिहार में बोकारो था जहाँ हमें थरमल पावर प्लाँट देखना था।
सुबह का समय था। चाय के लिये सब कुछ था मगर दूध नहीं था। सोचा अगले स्टेशन पर गाड़ी खड़ी होगी तो उतर कर दूध ले आऊँगा। एक छोटे स्टेशन पर गाड़ी रुकी। हमारा डिब्बा थोड़ा पीछे था। मैं उतर कर दूध की तलाश में काफ़ी आगे आ गया। दूध तो मिल गया मगर इसी बीच गाड़ी चल पड़ी। मैं किसी भी डिब्बे में चढ़ सकता था, फिर सोचा क्यों ने अपने डिब्बे में ही चढ़ूँ। अपने डिब्बे के मेरे पास पहुँचते पहुँचते गाड़ी चाल पकड़ चुकी थी। मैंने दौड़ कर चढ़ने की कोशिश की। डिब्बे का हैण्डिल तो मेरे हाथ में आगया पर पाँव तख्ते पर न पड़ कर हवा में लटक गए।
स्टेशन का प्लेटफार्म अभी खत्म नहीं हुआ था। पसीने से मेरे हाथ फिसलते जा रहे थे और मैं अपना सन्तुलन खोता जा रहा था। धीरे-धीरे मेरे हाथ फिसलते गए और मैं नीचे जाने लगा। एकाएक मैंने अपने को प्लेटफा्र्म और रेल की पटड़ी के बीच में लेटा पाया। रेल का पहिया मेरी आँखों से कोई दो इंच दूर था और खटखट की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी। शौचालय के पाईप ने भी मेरे क्न्धे को घायल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कितना समय बीता, मुझे इसका कोई आभास नहीं। जब थोड़ा होश आया तो देखा कि गाड़ी मेरे ऊपर से गुज़र चुकी है। उधर मित्रों ने मुझे देख कर फौरन चेन खेंच कर गाड़ी रोक दी थी। कहाँ तो मित्रगण सोच रहे थे कि मेरे शव को देखेंगे, मगर मुझे जीवित देखकर और स्वयं खड़ा देखकर सब चकित रह गए। बहुत डाँट पड़ी सबसे, मगर उस डाँट में जो प्यार था वो मैं ही जानता हूँ। थोड़ी देर बाद हम बुकारो पहुँच गए। वहाँ अस्पताल में मरहम पट्टी कराई। बाकी की यात्र काफी शारीरिक कष्टों में बीती और हम चण्डीगढ़ वापिस आगए।
यह बात न तो मैंने किसी को बताई और मित्रों से भी कह दिया कि किसी से बात मत करना। किसी न किसी तरह यह बात मेरे पिताजी तक पहुँच गई। कुछ दिन बाद घर मिलने जब अम्बाला आया तो माताजी और पिताजी को सारा किस्सा बताया। सब सुन कर दोनों कुछ नहीं बोले, केवल अपनी गोद में बिठा कर सिर पर हाथ फेरा और मुँह चूम लिया। उनके दिल पर इस समय क्या बीत रही थी, इस बात का अन्दाज़ा आप स्वयं लगा सकते हैं।
रेलचक्र बन आए यम, लेने मेरे प्राण,
अभी नहीं, आज्ञा मिली, छोड़ो इसकी जान!
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