28 अक्टूबर, 2015 की वो रात

31-12-2015

28 अक्टूबर, 2015 की वो रात

विजय विक्रान्त

बात २४ जनवरी २०१३ की है। उस दिन मेरा ७५वां जनम दिन था। पता नहीं, रह रह कर उस दिन पिताजी की बहुत याद क्यों आ रही थी? सोच रहा था कि काश वो आज य्हाँ होते तो कितना अच्छा होता। समय के बीतने का पता ही नहीं चला क्योंकि उन्हें गुज़रे हुये ३५ साल से भी ऊपर हो चुके थे। मृत्यु के समय पिताजी की उमर ७७ साल की थी। अचानक ना जाने बैठे-बैठे मेरे दिमाग़ में क्यों ये कीड़ा घर कर गया कि मैं भी ७७ साल से ज़्यादा नहीं जियूँगा। बात आई-गई हो गई लेकिन इस दिमाग़ी कीड़े ने परेशान करना शूरू कर दिया। ना सोचते हुये भी ये ख़्याल बार-बार आने लगा। कई बार तो ऐसा लगने लगा था कि ये बात सच हो कर ही रहेगी। कान्ता और बच्चों के आगे अगर कभी ये बात ग़लती से मुँह से निकलने की देर नहीं कि मेरी शामत आ जाती थी। हालाँकि दो साल पहले मेरा ७७वां जनम दिन बिना किसी विघ्न के बीत गया। फिर भी ना जाने क्यों, ये ख़्याल मेरा पीछा ही नहीं छोड़ रहा था।

इन्हीं दिनों मुझे ऐसा महसूस होने लगा था कि चलते समय मैं अपना बैलैंस खो रहा हूँ। समय के साथ-साथ ये परेशानी और भी बढ़ती चली गई। डॉक्टरों से काफ़ी परामर्श करने के बाद आख़िर में हम दोनों ने ये फ़ैसला किया कि अब मेरे लिये मेरू रज्जु (स्पाईनल कॉर्ड) की सर्जरी कराना बहुत ज़रूरी हो गया है। भली-भाँति जानते हुये भी कि ये आप्रेशन बहुत जोख़िम भरा है; मेरे पास इस के इलावा कोई और चारा भी तो नहीं था। आख़िर २७ अक्टूबर को मेरी सर्जरी का दिन निश्चित हो गया। जैसे-जैसे २७ अक्टूबर का दिन पास आने लगा वैसे-वैसे ही ही मेरे मन में रह-रह के ये विचार मँडराना शुरू हो गया कि कहीं ये सर्जरी, मेरे मन में जो खटका लगा था उसकी पूर्ति का माध्यम तो नहीं है।

२७ अक्टूबर को मेरी सर्जरी हो गई। सर्जरी के थोड़ी देर बाद डाक्टर “मारमर” ने कान्ता को आकर समाचार दिया कि ऑपरेशन ठीक हो गया है और चिंता करने की कोई बात नहीं है। उसके बाद मुझे रिकवरी रूम में जाँच के लिये रक्खा गया। जैसा मुझे बाद में बताया गया था, दो या तीन घण्टे बाद मुझे रिकवरी रूम से हटाकर हस्पताल की चौथी मन्ज़िल पर ले जाया गया था। उस समय हस्पताल में मुझे अपने बारे में कुछ होश नहीं था क्योंकि मुझे हर प्रकार की नींद की और दर्द कम करने की दवाईयाँ दे-देकर मेरी तकलीफ़ को कम करने की कोशिश ज़ारी थी। २८ अक्टूबर को भी वही हाल था। हो सकता है कि कुछ समय के लिये थोड़ा बहुत होश ज़रूर आया होगा, लेकिन उसके बाद फिर वही मदहोशी का आलम। शाम होने पर मैं कहने को तो सो गया लेकिन मैं ही जानता हूँ कि दर्द के मारे मैं कितना तड़प रहा था। दर्द मेरा इतना असहनीय था कि बताना बहुत मुश्किल था। ठहर ठहर कर मुझे ये ख़्याल आ रहा था कि कहीं ये सब मित्रों और परिवार के लोगों से आख़री मुलाक़ात का वक़्त तो नहीं आ गया है।

अचानक मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरे कमरे में कोई और भी है। ग़ौर से देखा तो सामने पिताजी खड़े थे। थोड़ा और नज़दीक से देखा तो अपनी वही काले रंग की अचकन पहने मुझे देख मुस्करा रहे हैं। देखने में वही सुन्दर रोबीला चेहरा। शीघ्र ही वो मेरे बिस्तर पर आकर बैठ गये। कहा कुछ नहीं, बस मेरी ओर देखते ही रहे। थोड़ी देर बाद मेरे सिर पर प्यार का हाथ रखकर पूछा- "बहुत दर्द हो रहा है क्या?” उन्हें देखकर मैं भौंचक्का सा हो गया फिर भी जैसे-तैसे हिम्मत करके मैंने मुँह खोल कर धीमे से कहा, "पिताजी, आप यहाँ कैसे? चलो अच्छा हुआ आप आ गये। देखो अब ये दर्द सहा नहीं जाता। अब आप आ ही गये हैं तो मैं आपके साथ ही चलूँगा। इसी दिन का तो इन्तज़ार था मुझे बहुत दिनों से। आप एकदम बिल्कुल सही समय पर मुझे लेने आ गये हैं। अब देरी किस बात की है। चलो, बस जल्दी से चलो और मुझे इस घोर पीड़ा से छुटकारा दिला दो।"

मेरा इतना कहना था कि वो मेरे और पास आकर सिर पर प्यार का हाथ फेर कर धीरे से बोले, "ये क्या बेकार की बातें कर रहे हो तुम। ज़रा से दर्द से घबरा गये। तुम्हारी ये तकलीफ़ कोई बड़ी तकलीफ़ नहीं है। कुछ ही दिन की तो बात है, सब ठीक हो जायेगा। याद कर वो १९६९ में दिल्ली के सफ़दरगंज हस्पताल का कमरा जहाँ तुम इस से भी अधिक पीड़ा में पड़े हुये थे और मैंने इसी तरह तुम्हारे सिर पर प्यार का हाथ रख कर पूछा था “बहुत दर्द हो रहा है क्या?" वो १९६९ की तकलीफ़ तो इस से भी कहीं ज़्यादा भयंकर थी। बुद्धा जयन्ती पार्क में तुम्हें जो चोट लगी थी उस से निकलते हुये तुम को तकरीबन ८, १० महीने लग गये थे। ये तकलीफ़ तो उस तकलीफ़ के आगे कुछ भी नहीं है। फिर ये कोई चोट नहीं है। यहाँ तो तुम्हारी एक परेशानी को डॉक्टरों ने दूर किया है। फ़िकर मत करो, हिम्मत ना हारो। तुम बहुत जल्द ठीक हो जाओगे। और हाँ, अपने दिमाग़ से ये ७७ साल में मरने के फ़तूर को निकाल फेंक दो और पूरा ध्यान अपने ठीक होने में लगाओ।

"विजय बेटा सब से पहले तो तुम अपने दिमाग़ से मेरे साथ चलने का ख़्याल छोड़ दे। आज मैं तुम से कुछ और बातें भी करने आया हूँ। तुम्हें और कान्ता को इस बात का बहुत दुख है कि हम सब एक साथ इकठ्ठे हो कर नहीं रह पाये। यही नहीं, तुम दोनों को इस बात का भी बहुत मलाल है कि तुम दोनों हमें अकेला छोड़ कर कैनेडा आकर बस गये। कई बार तो मैंने तुम दोनों को यह कहते भी सुना है कि इस बात को लेकर तुम्हारे परिवार के ऊपर हम दोनों का शाप है। अरे पगले, कौन माँ-बाप अपनी औलाद का बुरा चाहेगा और शाप देगा? हम तुम्हें शाप देंगे ये तुम ने सोचा भी कैसे? हमारा आशीर्वाद तो तुम सब के लिये सदा रहेगा। जहाँ रही हमारे कैनेडा आने की बात, सो तुम दोनों ने तो अपनी तरफ़ से हमें कैनेडा बुलाने की पूरी कोशिश की थी। मैं तो आने तो तैयार था लेकिन जब तुम्हारी मातीजी ने साफ़ इंकार कर दिया तो मैं क्या कर सकता था। उन्हें अकेले छोड़ कर तो मेरा यहाँ आकर रहना नामुमकिन था।

"बेटा, आज मैं वो एक बात दोहराना चाहता हूँ जो शायद हो सकता है तुम को कभी बताई हो। तुम्हारे पैदा होने से पहले तुम्हारे एक भाई और एक बहन को हम ने बचपन में खो दिया था। जब तुम पैदा हुए तो मैंने तुम्हारी जन्मपत्री बनवाई और तुम्हारे भविष्य के बारे में मैंने पण्डित जी से पूछा। सब देखकर पण्डित जी ने कहा कि "लालाजी, और तो सब ठीक है लेकिन आपको इस बेटे का सुख नहीं मिलेगा"। यह सुनकर मैं बिल्कुल चुप हो गया था। किसी से कुछ नहीं कहा, लेकिन मन में एक डर सा बैठ गया था कि शायद तुम भी हमें हमेशा के लिये छोड़ कर चले तो नहीं जाओगे। जब भी तुम हमारी आँखों से दूर होते थे, मुझे इस बात का हमेशा डर रहता था। तुम्हारा कैनेडा जाना पण्डित जी की इस बात की पुष्टि करता है कि हमारी क़िस्मत में आपस में एक दूसरे का सुख नहीं था। जब भाग्य में यही लिखा है तो फिर इस में तुम दोनों का क्या कसूर है? भूल जाओ इन सब बेकार की बातों को।

"जाने से पहले एक बात तुम्हारे दिमाग़ से और निकाल देना चाहता हूँ, जिसे सोच-सोच कर तुम अपने आपको कोसते रहते हो। याद करो १० नवम्बर १९७७ की सुबह और सर गंगाराम हस्पताल दिल्ली का कमरा। तुम्हें ये भी याद होगा कि मुझे अम्बाले से दिल्ली इलाज के लिये लाया गया था और मेरी तबियत अधिक ख़राब होने के कारण एक हफ़्ते पहले तुम ईरान से मुझे मिलने आये थे। बेटा तुम ९ नवम्बर की रात को मेरे साथ रहे थे। १० की सुबह को मैंने ही तुम को तुम्हारी बहन विजय लक्ष्मी के घर जाकर आराम करने को कहा था। सिर्फ़ इस लिये कि तुम सारी रात सोये नहीं थे और बहुत थके हुए थे। तुम्हें भेजने के थोड़ी देर बाद ही मुझे ऐसा अहसास हुआ कि शायद वो मेरी बहुत बड़ी ग़लती थी क्योंकि मुझे कुछ महसूस होने लगा था कि मेरा अब आख़िरी समय नज़दीक आ गया है। हुआ भी वही। मैं ने चोला तो छोड़ दिया लेकिन ध्यान मेरा तुम्हारे में ही अटका रहा। बाद में जब तुम सब घर वालों को मेरे जाने की ख़बर मिली तो सब से अधिक तुम को ये दुख हुआ कि आख़िरी समय में तुम मुझको अकेला छोड़ कर विजय लक्ष्मी के घर क्यों चले गये थे। मुझे देह छोड़े हुये ३८ साल हो गये हैं लेकिन इस बात को लेकर तुम अब भी कभी-कभी बहुत परेशान हो जाते हो। बेटा इसे भाग्य का चक्कर नहीं कहेंगे तो फिर और क्या कहेंगे। ऐसा ही लिखा था, ऐसा ही होना था और ऐसा ही हुआ। चाहता तो मैं भी यही था कि तुम्हारी गोद में साँस छोड़ूँ लेकिन विधाता को तो कुछ और ही मंज़ूर था। हम दोनों आपस में बाप-बेटे होते हुये भी एक दूसरे का सुख नहीं भोग पाये। हमें इसी में शाँति मिलनी चाहिये कि जितना भी हमारा साथ रहा वो प्रेमपूरण रहा।

"बेटा जाते-जाते बस यही कहूँगा कि तुम्हारी ये तकलीफ़ बहुत जल्दी ठीक हो जायेगी। अब किसी भी बात को लेकर अपने मन को और दुखी मत करो और जितनी भी ज़िन्दगी है उसे अपने परिवार के साथ हँसी-ख़ुशी बिताओ।"

इसके बाद मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरा माथा चूमा हो और मैं एकाएक किसी गहरी नींद से जाग गया हूँ। दर्द का अभी भी वही हाल था। फिर भी ऐसा महसूस होने लगा कि शायद कुछ कम हो रहा है। ये दवाईयों का असर था या पिताजी के मेरा माथा चूमने का, मुझे इस प्रश्न के उत्तर की तलाश है।

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