ऐसा गाँव है अपना
निहाल सिंह
जहाँ सरसों के फूलों पर बैठे तितली रानी
जहाँ लगन में लड्डू बाँटने की रीत पुरानी
जहाँ शर्वरी बच्चों को नानी कहें कहानी
जहाँ खेतों में लहरा के पवनें चले सुहानी
जहाँ नभमंडल है ओढ़नी, अवनि है बिछोना
ऐसा गाँव है अपना, ऐसा गाँव है अपना
जहाँ बैलों के पाँवों में बजते हैं घुँघरू
जहाँ त्योहारों पर होते हैं तमाशे हरसू
जहाँ घर के अजिर में उड़ते हैं कितने जुगनू
जहाँ पीली चुनर ओढ़कर नाचती है सरसों
जहाँ पगडंडी से पैदल ही पड़ता है चलना
ऐसा गाँव है अपना, ऐसा गाँव है अपना
जहाँ जाड़ों में दिन निम्न, निशि बड़ी है होती
जहाँ सरसों संग खाते हैं मक्के दी रोटी
जहाँ शिशु की चीखें सुन माँ की आँखें हैं रोती
जहाँ स्त्री चुनरी ओढ़े, पुरुष पहने धोती
जहाँ इक छत के नीचे सबको पड़ता है सोना
ऐसा गाँव है अपना, ऐसा गाँव है अपना