स्मृतियों में हार्वर्ड

स्मृतियों में हार्वर्ड  (रचनाकार - दिनेश कुमार माली)

अनुवादक की क़लम से . . . 

 

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित डॉ. सीताकांत महापात्र का नाम न केवल भारतीय साहित्य में वरन्‌ विश्व साहित्य में भी अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्ज करवाता है। एक प्रबुद्ध प्रशासक और साहित्यकार होने के साथ-साथ नृतत्व (मानविकी) विषय पर आपका विशेष अधिकार है। भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में पूरे देश में अव्वल होने तथा परवर्ती प्रशासनिक सेवाओं में उत्कृष्ट योगदान देने के लिए भारत सरकार की तरफ़ से आपको कैंब्रिज एवं विश्वविद्यालय में बतौर ‘फ़ैलो’ के रूप में भेजा गया। वहाँ पर भी वर्ष के अंत में होने वाली लिखित परीक्षा में सबसे ज़्यादा अंक प्राप्त कर आपने हमारे देश का नाम गौरवान्वित किया। 

विगत एक दशक से मैं सीताकान्त महापात्रा से परिचित हूँ, ओड़िशा के ख्याति-लब्ध शीर्षस्थ कवि के तौर पर। ओड़िया काव्य के प्रति प्रगल्भ स्वानुभूत साहित्यिक अवधारणाओं एवं विमर्श के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के समकालीन साहित्य पर भी आपकी गहरी पकड़ है। अपनी यात्रा-संस्मरण ‘हार्वर्डरे सेईसबु दिन’ उन्होंने मुझे सन्‌ 2011 में अवलोकनार्थ भेंट की थी, भुवनेश्वर में उनके घर सत्यनगर में एक औपचारिक मुलाक़ात के दौरान, जब मुझे आंतरिक उत्कंठा इस सदी के बड़े-बड़े लेखकों से मिलने को प्रेरित करती थी। ये पुस्तक मुझे उपहारस्वरूप देते हुए उन्होंने कहा था, “दिनेश, यह मेरे जीवन की एक अनमोल धरोहर है।” एक-दो महीने में मैंने इसे अच्छी तरह पढ़ लिया था, मगर वैदेशिक पृष्ठभूमि, अनेक विदेशज शब्द और विदेशी साहित्यकारों की अनभिज्ञता के कारण मैं इस पुस्तक का अनुवाद करने में अपने आपको अक्षम पा रहा था। मगर जब मैंने राहुल सांस्कृत्यायन की ‘वोल्गा से गंगा तक’, ‘किन्नर देश की ओर’ यात्रा-संस्मरण पढ़े तो मेरे यायावरी स्वभाव के कारण मुझे साहित्य की अन्य विधाओं की तुलना में यात्रा-संस्मरण ज़्यादा आकर्षित करने लगे। सन2011 में थाईलैंड-प्रवास पर लिखे मेरे संस्मरण को लखनऊ की तस्लीमा संस्थान ने उस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ संस्मरण घोषित कर मेरा उत्साहवर्धन किया। उसके बाद तो चीन की यात्रा पर तो मैंने ‘चीन में सात दिन’ नामक पुस्तक तक लिख डाली, जो बाद में सन्‌ 2013 में यश-पब्लिकेशन्स से प्रकाशित हुई। इसी दौरान मुझे डॉ. विमला भंडारी का संस्मरणात्मक शैली में लिखा हुआ किशोर उपन्यास ‘कारगिल की घाटी’ समीक्षार्थ प्राप्त हुई। 

सात साल बाद मैं फिर से सीताकांत जी के इस पुस्तक को पढ़ने से रोक नहीं पाया और मन में जुनून पैदा हो गया और मन ही मन अनुभव करने लगा कि अगर यह काम शेष रह जाता तो शायद मुझे सुकून नहीं मिलता। जब मैंने अनुवाद करना शुरू किया तो बस करता ही चला गया। दो-अढ़ाई महीने कब बीत गए मालूम नहीं चला। टंकण, संशोधन और सम्पादन सब प्रक्रियाएँ एक ही साथ चल रही थीं। स्रोत भाषा की लक्ष्य भाषा में कोडिंग-डीकोडिंग इतनी गहनता से हो रही थ कि मुझे लगने लगा था मानो मैं भी सीताकांत जी की परछाईं बनकर केंब्रिज, बोस्टन, हार्वर्ड, न्यूयॉर्क, मैक्सिको सभी देशों की यात्रा कर रहा हूँ, उनका अनुगमन कर रहा हूँ, विश्व के बड़े-बड़े साहित्यकारों से उनके साक्षात्कारों का प्रत्यक्षदर्शी बन रहा हूँ, दर्शक-दीर्घा में बैठकर उनके व्याख्यानों पर करतल ध्वनि से आभार व्यक्त कर रहा हूँ। ईश्वर समग्र विश्व भ्रमण का मौक़ा राहुल सांस्कृत्यायन या सीताकान्त महापात्र जैसे बिरले भाग्यशाली व्यक्तियों को ही देता है। उनके लिपिबद्ध संस्मरण हमें विश्व की शिक्षा-संस्थानों की उत्कृष्टता के साथ-साथ सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिवेश का ख़ाका प्रस्तुत करता है। राम मनोहर लोहिया की ‘विश्व-भाषा, विश्व-लोकतंत्र’ की अवधारणा की संपुष्टि करते हुए यह संस्मरण ‘वसुधैव कुटुंबकम’ उक्ति को चरितार्थ करने का आह्वान करता है। सीताकांत जी ने अपनी मूल कृति के प्रथम पृष्ठ पर जिन दो महाविद्वानों की उक्तियाँ उद्धृत की हैं, उनका भी मैं यहाँ उल्लेख करना समीचीन समझता हूँ। लिन यूतांग लिखते है: “No one realises how beautiful it is to travel until he comes home and rests his head on his old familiar pillow.” तथा रोबर्ट लुइस स्टेवेंसों का कथन है, “There is no foreign lands. It is the traveller only who is foreign.” 

मैंने इस यात्रा-संस्मरण को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए डॉ. प्रसन्न कुमार बराल द्वारा ओड़िया भाषा में लिए गए उनके साक्षात्कार का मेरा हिंदी अनुवाद जोड़ा है। साथ ही साथ, हिंदी पाठकों को उनके समग्र कृतित्व और व्यक्तित्व के बारे में परिचित कराने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित रवींद्र कालिया द्वारा संपादित ग्रंथ ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार (1965-2010)’ में से उनका प्रशस्ति-पत्र, वक्तव्य एवं ओड़िया समालोचक हरप्रसाद दास द्वारा उनकी रचनधर्मिता पर लिखे आलेख का अनुवाद भी परिशिष्ट में जोड़ दिया गया है। आशा है, सीताकांत महापात्र के इस यात्रा-संस्मरण का हिंदी जगत में भरपूर स्वागत होगा। 

दिनेश कुमार माली
तालचेर

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