स्मृतियों का कोहरा
कृष्णा वर्माजब-तब घिरे स्मृतियों का कोहरा
सन्नाटों में धड़कता मौन
पलटने लगता है अतीत के पन्ने
किसने कब क्यूँ कहाँ और कैसे को
कुरेदता मन
झाँकने लगता है बीती की तहों में
किसके छल ने डसा और
किसके व्यंग्य ने भेदी आत्मा
किसने उकेरने चाहे
मेरे तलवों की ज़मीं पर अपने नक़्शे
कौन मेरे पाँव की ज़मीं खिसका कर
बनाने के प्रयत्न में था अपना महल
किसने चलाए मेरे वक़्त पर
तिरछे बाण और
किसने बँधाया मेरी अस्थिरता को धीर
किसके हाथों का स्पर्श दे गया
काँधे को आश्वासन
किसकी हथेली की उष्मा दे गई
अपनापे की गरमाहट ठंडी हथेली को
किसने निभाया दिली रिश्ता और
किसने औपचारिकता
कौन था जिसने ज़ख़्मों को भरा
और किसने उन्हें उधाड़ा
किसने दी पीड़ा और किसने हरी
आकलन करता पगला मन
समीक्षा में उलझा भूल जाता है
कुहासे को छाँटना
अतीत की डबडबाहट में भीगी पलकें
बार-बार लग जाती हैं
गुलाबी डोरों के गले
क़तरा-क़तरा सोज़
उड़ेल कर कोरों के काँधों पर
छाँटना चाहती हैं तुषारावृत को
पर यादों का समंदर है कि सूखता ही नहीं
हठी स्मृतियाँ इंतिहाई मज़बूती से
थामे जो रहती हैं मन की अँगुली।