निकलेगा हल
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’निकलेगा हल,
हल निकलेगा,
आज नहीं तो कल।
जहाँ नहीं अंकुर फूटे हों,
गीला रखना तल,
नहीं लगा हो, वहाँ लगाना,
पानी का भी नल,
यह भी संभव, ले गंगा को,
आ भी जाएँ ‘चल’ ।
हर दिन को, अँगुरी पर गिन-गिन,
जीवित रखना पल,
आया है जो आज बुरा दिन,
वह जाएगा टल,
साथ निभाएगा हर सपना,
भागेगा हर छल।
जिस जीवन का जगा भरोसा,
झील वही है ‘डल’
सच्ची बातें भी आँखों को,
अक़्सर जातीं खल,
मानव है तू, मानव ही रह,
मत ओला सा गल।
जीवन भर डालो हर जड़ में,
दृढ़तापूर्वक जल,
इस प्रयास का, एक नया सा,
मिल सकता है फल,
चलो! खिलाएँ हम मरुथल में
साँसों का शतदल।
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