नक़ाबपोश रिश्ते

15-09-2021

नक़ाबपोश रिश्ते

ममता मालवीय 'अनामिका' (अंक: 189, सितम्बर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

दिव्या गाँव में रहने वाली एक भोली-भाली सी लड़की थी और उसके पिता रायसेन ज़िले के एक छोटे से क़स्बे के सरपंच। गाँव बहुत छोटा था, इस कारण वहाँ के निवासियों को बहुत कम सुविधाएँ मिल पातीं थी। गाँव में स्कूल भी कक्षा 8 वीं तक ही उपलब्ध था। दिव्या के पिता अशोक गाँव के सरपंच होने की शान को बरक़रार रखने के लिए दिव्या को कक्षा 12वीं तक पढ़ाया। इसके लिए दिव्या अपनी छोटी बहन के साथ पड़ोस के गाँव में पढ़ने भी जाने लगी। मगर जैसे ही उसने 12वीं कक्षा उत्तीर्ण की, अब वो उम्र के 18 बरस पूर्ण कर चुकी थी। गाँव की प्रथा थी, कि "18 बरस में लड़की की शादी कर देनी चाहिए"। उसी प्रथा को आगे बढ़ाते हुए, दिव्या के पिता अशोक ने भी शहर में एक अच्छा लड़का और उसका घर-बार देख कर दिव्या की सगाई पक्की कर दी। दिव्या के जीवन के इतने बड़े फ़ैसले में उसके हिस्से आई थी, मात्र लड़के की तस्वीर। 

"कुछ लोग प्रथाओं को ही धर्म मानते हैं, मगर प्रत्येक प्रथा धर्म नहीं होती"। 

दिव्या ने भी पिता की इच्छा को धर्म मानकर, बिना लड़के से मुलाक़ात किए, सगाई के लिए अपनी मंजूरी दे दी। और दिव्या के पिता अशोक ने प्रथा को धर्म मानकर अपनी मर्ज़ी से दिव्या की सगाई पक्की कर दी। 

"विवाह दो आत्माओं का एक संगम होता है, इसमें तस्वीरें मिलाने की बजाय विचार और पसन्द मिलाने चाहिएँ"।

दिव्या की सगाई रायसेन ज़िले में रहने वाले, उसी की उम्र के एक लड़के वैभव से पक्की की गई थी। जो क़द-काठी में किसी छबीले युवक से कम नहीं था। 

मगर दिव्या की इच्छा थी, वह शादी से पहले वैभव को जाने, उसकी पसन्द-नापसन्द को समझे। मगर गाँव के रीति-रिवाज़ के मुताबिक शादी से पहले लड़का-लड़की का आपस में बात करना अपशगुन माना जाता था। 

मगर फिर भी दिव्या ने वैभव से फोन के माध्यम से बात करने की कोशिश की, उसके बारे में जानने का प्रयत्न किया। 

"लड़कियाँ अपने हिस्से में जो भी आता है, उसे श्रेष्ठ बनाने की कला बख़ूबी जानती हैं। और उस तरफ़ क़दम बढ़ाने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता"।

दूसरी तरफ़ वैभव अपनी ही कक्षा की एक लड़की आरोही को चाहता था, मगर डर के कारण कभी उससे अपने दिल की बात ही नहीं कह पाया। और उसी बीच वैभव के पिता उसकी सगाई दिव्या से पक्की कर दी थी। 

"बाल मन बहुत ही कोमल होता है, उनके लिए दिल की लड़ाई हार जाना, ज़िंदगी की लड़ाई हार जाने के बराबर है"। 

वैभव भी अब दिल की लड़ाई हार चुका था। उसकी पहली चाहत सदैव के लिए उससे बहुत दूर जा चुकी थी। और दूसरी तरफ़ दिव्या वैभव के संग अपने आने वाले जीवन के ख़ूबसूरत सपने सजा रही थी। 

कई बार दिव्या को वैभव का रूखा व्यवहार खटकता भी था। मगर एक छलावा जो प्रत्येक व्यक्ति ख़ुद को देता है, कि "शादी के बाद सब ठीक हो जाएगा"; यही सोच कर दिव्या ने उस वक़्त कोई क़दम ही नहीं उठाया। 

"भविष्य में वक़्त के साथ सब सही हो जाएगा, इसी भ्रम में व्यक्ति वर्तमान में कोई सटीक फ़ैसला नहीं लेता"।

धीरे-धीरे विवाह की घड़ी नज़दीक आ रही थी। मगर आज भी वैभव का व्यवहार दिव्या के लिए रूखा ही था। वैभव दिल से इस शादी को स्वीकार कर ही नहीं पाया था। 

मगर अपने पिता की इच्छा को वह टालना भी नहीं चाहता था। 

"माता- पिता का जितना अधिकार है, अपनी संतान के जीवन के फ़ैसले लेने का। उतना ही उनका कर्तव्य भी बनता है, कि वह अपनी संतान की पसन्द-नापसन्द को समझें"।

दिव्या और वैभव दोनों को बिना एक दूसरे से मिलवाए, बिना उनकी पसन्द को जाने, उनके माता- पिता ने उनकी शादी करवा दी। 

दिव्या एक नए संसार के सपने को अपनी आँखों में सजाए, अपना घर-आँगन, सहेली-बचपन, गाँव-गलियारा सब कुछ पीछे छोड़ अपने ससुराल आ गयी। यहाँ आकर उसने हर सम्भव प्रयास किया, जिससे वह वैभव के हृदय में अपनी जगह बना सकें। 

मगर वैभव अपने टूटे दिल के दर्द में इतना डूबा रहा कि वह कभी दिव्या की पीड़ा को समझ ही नहीं पाया। 

और जब समझने की मानसिकता में आया तब तक इतनी देर हो चुकी थी कि उनके विचार ही आपस में तालमेल नही खा पाये। 

"विचारों का न मिलना स्वाभाविक है, मगर रिश्ता मिलाने से पहले अगर विचार मिलाए जाएँ तो रिश्ते को भी बचाया जा सकता है,और विचारों को भी"।

दिव्या और वैभव अब ऐसी कश्ती के दो माँझी बन चुके थे, जिनमें न तो विचारों की समानता थी और न ही प्रेम की। 

मगर फिर भी दोनों एक बंधन में बँधे हुए थे। मात्र कुछ पुरानी परंपरा और खोखली मानसिकताओं के कारण। 

आज भी कई रिश्ते ऐसे हैं, जो मात्र परम्परा और प्रथाओं के झूठे ढकोसलों में बँधकर एक मृत रिश्ते की देह को घसीट रहे हैं। विवाह जैसा एक पवित्र बंधन, जो अटूट प्रेम का प्रतीक है, उसे नक़़ब ओढ़ कर, एक झूठी शान की ख़ातिर जीवन भर निभाया जा रहा है। 

मेरा मानना है हमें ऐसी परंपरा और प्रथाओं को तोड़ देना चाहिए। जो ख़ुद के साथ दूसरों के भी दुख का कारण बनती हैं। हमें नक़ाबपोश रिश्ते बनाने से सदैव बचना चाहिए। 

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