कैसे हाशिए?

01-12-2019

कैसे हाशिए?

कृष्णा वर्मा (अंक: 145, दिसंबर प्रथम, 2019 में प्रकाशित)

जैसे ही समीरा लंच से लौट कर आई उसके सेल फोन पर एक मैसेज आया। मैसेज को पढ़ते ही उसके चहेरे पर परेशानी की लकीरें उभरने लगीं। “माँ की तबीयत बहुत ख़राब है मेल देखते ही तुरन्त चली आना” तुम्हारी जीजी सलोनी। समझ नहीं पा रही थी क्या करे? जल्दी से छुट्टी की अर्ज़ी लिखने लगी; साथ-साथ मन में घबराहट भी हो रही थी कि पहले से ही दो लोग छुट्टी पर हैं और आजकल काम का भी बहुत ज़ोर है, पता नहीं शर्मा जी अर्ज़ी मंज़ूर करेंगे या नहीं। इसी उधेड़-बुन में वह शर्मा जी के पास पहुँच गई। शर्मा जी काम में आँखें गड़ाए बैठे थे। अचकचाती सी बोली, “सर. . . सर।” 

शर्मा जी ने आवाज़ सुन कर चश्मे के ऊपर से आँख उठा कर देखा, “जी कहिए।” 

झिझकते हुए समीरा ने अर्ज़ी आगे कर दी। 

देखते ही वह भनभना कर बोले, “तुम्हें पता है ना पहले से ही दो लोग छुट्टी पर हैं। काम कितना पिछड़ रहा है और तुम हो कि छुट्टी माँगने चली आईं।”

“सर- व्वो मेरी माँ की तबीयत बहुत ख़राब है; अभी-अभी मेरे घर से मेल आई है।”

“हाँ-हाँ जानता हूँ। आए दिन छुट्टी लेने के यह घटिया-से पुराने बहाने। या तो किसी रिश्तेदार को बीमार कर दो या जीते जी सीधा उसे स्वर्ग पहुँचा दो, क्यों सही है ना।”

शर्मा जी की बातों को सुन कर हताश हुई समीरा ने अपने पर्स में से अपना सेल फोन निकाला और घर से आई बहन की मेल खोल कर उनके सामने रख दी और और रुँधी आवाज़ में बोली, “मैं झूठ नहीं कह रही हूँ सर, इससे अधिक मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है।” गिड़गिड़ाते हुए मिन्नत-मिनौत कर किसी तरह उसने शर्मा जी से एक सप्ताह की छुट्टी मंज़ूर करा ली।

अपनी सीट पर वापस आ कर काम में दिल कहाँ लग रहा था उसका! ध्यान तो माँ में पड़ा था। मन में मची उथल-पुथल चैन कहाँ लेने दे रही थी। हर थोड़ी देर में अपनी हाथ घड़ी देखती कि कब घूमती सुइयाँ पाँच बजाएँ और वह निकले। पाँच बजते ही उसने राहत की साँस ली। अपना पर्स कंधे पर टाँगा और लगभग भागती हुई सी बाहर निकली। सड़क पर हर ओर आतुर नज़रों से ऑटो रिक्शा खोजने लगी। सामने से अचानक ख़ाली ऑटो को आते देख उसे रुकाते हुए मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद किया। घर पहुँच कर जल्दी से एक बैग में कुछ कपड़े भरे। रास्ते के लिए दो-चार पत्रिकाएँ रखीं और चल दी रेलवे स्टेशन की ओर। किसी तरह तिकड़म लगा कर अपनी टिकिट का इंतज़ाम भी कर लिया। भीड़ को चीरती हुई धक्का-मुक्की में जैसे-तैसे कर गाड़ी भी पकड़ ली। जल्दी से खिड़की वाली सीट पर अपना बैग रखा और फिर माँ की चिंता में घुलने लगी। कुछ ही मिनटों में गाड़ी छूट गई। दिन भर की थकी समीरा को झपकियाँ घेरने लगी। तभी उसे ख़्याल आया कि आलोक को तो बताना ही भूल गई कि अचनाक कुछ दिन के लिए दिल्ली जाना पड़ रहा है सो कल उसे मिल नहीं पाएगी। फोन करके बताने का सोच ही रही थी कि गाड़ी के हिचकोलों में आँखे मुँदती गईं और नींद में डूब गई। कुछ घंटों के बाद नींद टूटी और ध्यान फिर माँ की ओर जा टिका। ख़ुद को बार-बार समझाती - माँ को कुछ नहीं होगा सब ठीक हो जाएगा। मगर मन है कि खूँटा तुड़ा कर फिर उल्टे-सीधे ख़्यालों में पहुँच जाता।

बार-बार हाथ घड़ी देखती कि और कितना समय शेष है दिल्ली आने में। पत्रिकाएँ तो हैं, मगर पढ़ने में मन ही नहीं लग रहा। आँखें मूँद कर कभी आलोक के ख़्याल में डूब जाती कभी माँ के। इन्हीं ख़्यालों के चलते गंतव्य आ गया। गाड़ी दिल्ली स्टेशन पर जा पहुँची। स्टेशन से बाहर निकल ऑटो रिक्शा बुलाया। हड़बड़ाई सी बोली, “भइया- करोलबाग।”

“हाँ-हाँ बैठो।”

भीतर बैग सरकाया बैठते-बैठते बोली, “मीटर तो डाऊन कर लो।”

“एक दाम पचास रुपया लगेगा मैडम, चलना हो तो बोलो।”

“अच्छा ठीक है – चलो!”

बैठते ही फिर सोचों में उलझ गई। 

“मैडम - करोलबाग!” ऑटो चालक की आवाज़ सुन कर उसकी तंद्रा टूटी। 

झट बोली, “बाएँ हाथ मुड़ कर पहली गली में चौथा घर।”

ऑटो के रुकते ही पचास का नोट देती हुई अपना बैग उठा घर के दरवाज़े पर पहुँची। कंपन भरे हाथ से घंटी बजाई। दरवाज़ा खुलते ही सामने दमयंती मौसी को पाया। छूटते ही बोली, “माँ कैसी है मौसी? सब ठीक तो है ना!”

“हाँ-हाँ सब ठीक है; पहले भीतर तो आजा।”

दरवाज़े की साँकल उड़काती हुई मौसी बोली, “बस निम्मो ज़रा घबरा गई थी सो तुझे आने को कह दिया।”

कमरे में माँ को भली-चंगी देख समीरा ठिठकी सी बोली, “माँ, तुम तो ठीक-ठाक दिख रही हो फिर मुझे क्यों?”

“बस मिलने को दिल चाह रहा था सोचा यूँ तो तू आएगी नहीं इसलिए बुलवा भेजा।”

खीझी सी आवाज़ में समीरा बोली, “माँ तुम भी ना. . .” कह कर चुप हो गई। 

थोड़ी ही देर में मौसी चाय-नाश्ता ले आई। चाय समाप्त होते ही माँ बोली, “जा जाकर थोड़ा सुस्ता ले सफ़र की थकी हुई है।”

समीरा वहीं बिछे पलंग पर दूसरी तरफ़ करवट ले कर लेट गई। नींद तो आ नहीं रही थी। बस आँखें मूँदे इसी सोच में पड़ी रही कि आख़िर ऐसी क्या बात है जो मुझे यूँ अचानक बुला भेजा। समीरा को सोया हुआ जान थोड़ी देर बाद ही माँ और मौसी की आपस में खुसर-पुसर शुरू हो गई। 

“जीजी अब शादी की बात पक्की करके भेजना।” दमयंती मौसी के स्वर में अब और अधिक ढील ना देने की चेतावनी थी। “अरे मानेगी तभी ना! ज़बरदस्ती कैसे करूँगी? 

“ना मानेगी तो इस बार उसके साथ रहने चली जाना।”

शक तो समीरा को आते ही हो गया था। लेकिन अब तो यक़ीन हो गया है कि मामला कुछ और ही है। गुमसुम पड़ी सोचती रही कहीं माँ को आलोक के बारे में कोई शक तो नहीं हो गया। नहीं-नहीं हमारा तो कोई भी जानकार बंगलौर में नहीं रहता। कुछ देर बाद समीरा उठी और उठ कर जहाँ माँ और मौसी बैठी थीं वहीं कुर्सी खिसका कर बैठ गई। उन दोनों की खुसर-पुसर चुप्पी में बदल गई। इतने में ही सलोनी दीदी भी आ गईं। समीरा ने सलोनी दी को शिकायती लहज़े में कहा, “माँ तो भली-चँगी है फिर आपने तो मुझे यूँ ही क्यों बुला लिया?”

“यूँ ही कहाँ - माँ ने कहा ज़रूरी काम है तभी तो बुलाया है।”  

“ऐसा भी क्या ज़रूरी काम था दी कि इतने बिज़ी सीज़न में बुला भेजा। आप क्या जाने छुट्टी लेने के लिए कितना अपमानित होना पड़ा।”

तपाक से माँ बीच में ही बोल उठी, “जानती हूँ कितनी बिज़ी है तू। कौन है वह जिसके साथ कई बार दमयंती मौसी की बहु नैना ने तुझे घूमते देखा है?” 

समीरा ने कुछ सोचते हुए पूछा, “लेकिन भाभी तो बम्बई में हैं फिर?”

“पिछले एक महीने से उन लोगों का स्थानांतर बंगलौर में हो गया है। आते-जाते कार से उसने तुझे कई बार उस लड़के के साथ देखा है।”

“अरे...माँ! वह तो आलोक है। मेरे ही विभाग में काम करता है। बहुत अच्छा लड़का है। आजकल थोड़ा परेशान है क्योंकि पत्नी का अचानक दिल के दौरे से देहान्त हो गया। दो साल का एक बेटा भी है। शहर में अकेला है सो कभी-कभी मुझसे अपना दुख बाँट लेता है। इसमें बुराई भी क्या है, माँ?”  

“अच्छा-अच्छा ज़्यादा बातें ना बना। दुख बाँटने के लिए तू ही मिली थी क्या? कोई ज़रूरत नहीं किसी के इतने दुख सुनने की, समझी! लड़की ज़ात को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए। जानती नहीं कल को इन बातों से तेरी शादी में रुकावट आ सकती है।”

“क्यूँ माँ लड़कियों का दिल नहीं होता या भावनाएँ नहीं होतीं? उन्हें अपनी इच्छा से जीने का भी हक़ नहीं है क्या?”

“नहीं, मैं नहीं मानती इन बेतुकी बातों को।” माँ की आवाज़ कुछ और सख़्त हो गई। “बस-बस रहने दे, अपने पास ही रख अपनी नई सोच को और मेरी बात को ध्यान से सुन। दमयंती मौसी ने एक रिश्ता बताया है। खाते-पीते लोग हैं। घर में ठाठ-बाठ हैं। लड़का पढ़ा-लिखा है और सरकारी नौकरी कर रहा है।”

समीरा के कुछ कहने से पहले ही मौसी बीच में बोल पड़ी, “समीरा के साथ ही तो कॉलेज में पढ़ती थी उसकी बहन।”

समीरा उसकी बहन का नाम सुनते ही बोली, “जानती हूँ उस लड़के को निरा लफंगा। सारा-सारा दिन आवारा घूमना, लड़कियों को फिकरे कसना। पिता पुलिस विभाग में काम करते हैं और उनका काम हर नरम-गरम से घूँस ऐंठना हैं। हराम का पैसा जो आता है, ठाठ-बाठ तो होंगे ही। ऐसे लड़के से विवाह! कदाचित नहीं।” बिना कुछ सोचे समीरा फटाक से बोल उठी, “माँ मैं शादी करूँगी तो आलोक जैसे लड़के से मुझे वह हर लिहाज़ से बहुत पसंद है। मैं उससे शादी करना चाहती हूँ।”

यह सुनते ही माँ के पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। और वह फटी-फटी आँखों से समीरा की ओर देखती रह गई। 
 
एकाएक फूट पड़ी, “मती तो नहीं मारी गई तेरी। विधुर से ब्याह करेगी क्या और उस पर एक बच्चा भी! लोग क्या कहेंगे?” 

समीरा भी बिफर गई, “लोगों को जो कहना हो वो कहें, मुझे किसी की कोई परवाह नहीं है। विधुर है! कोई दुश्चरित्र तो नहीं। पढ़ा-लिखा सभ्य इंसान है। यदि बच्चा भी है तो क्या हुआ, किसी का सहारा बनना मेरी निगाह में तो किसी पुण्य से कम नहीं।”

“बिरादरी में नाक ना कट जाएगी?” 

यह सब सुन कर तो सलोनी से भी चुप न रहा गया तपाक से बोल उठी, “कौन सी बिरादरी की बात करती हो माँ? पिता की मृत्यु के बाद किसने तुम्हारे दुख को बाँटा? क्या इतने बरसों से तुम अकेली ही नहीं जूझ रही हो? रूढ़ियों से बाहर निकलो माँ। याद है ना इसी हठ की वजह से तुम्हारे बेटे ने कितनी दूरी बना ली तुमसे। क्या कमी थी भैया की पसंद में। लचकी डाली सी थी वह। सुन्दर, पढ़ी-लिखी डॉक्टर लड़की। पर तुम्हारी ज़िद थी कि ज़ात-बिरादरी से बाहर शादी नहीं होगी। समय बदल चुका है माँ, क्यूँ नहीं समझती हो कि तुम्हें स्वयं को बदलना होगा। तुमने भइया की भावनाओं की ज़रा भी परवाह की होती तो वह कोर्ट-मैरिज करके विदेश ना चले जाते। अपने हठ के आगे रिश्तों को कब तक यूँ न्योछावर करती रहोगी?” 

पर माँ कब टली; वह तो अपनी ज़िद को लिए बैठी रही। समीरा भी टस से मस नहीं हुई। माँ कभी ग़ुस्से से कभी प्यार से समझाती रही कि आलोक का ख़्याल दिल से निकाल दे। आख़िर समीरा के वापस जाने का दिन आ गया। जब समीरा पर कोई असर होता ना दिखा तो माँ ने अपने सर की क़सम देकर वश में करने का अमोघ अस्त्र अपनाया। समीरा ने स्टेशन जाने के लिए आटो-रिक्शा मँगवाया। वह जब चलने को हुई तो माँ ने झट से उसके गले में अपनी तुलसी की माला पहना दी। और ताकीद करते हुए बोली, “पहने रहियो इस माला को, ताकि यह तुझे मेरी दी हुई क़सम की याद दिलाती रहे।” 

समीरा बिना कुछ बोले आटो-रिक्शा में बैठ गई और रास्ते भर माँ की दक़ियानूसी बातों को सोच-सोच कर परेशान होती रही। लेकिन वह दुख और ग़ुस्से की आती-जाती लहरों में डूबी नहीं बल्कि अपने मन को दृढ़ कर आश्वस्त करती रही कि हो न हो मैं इन क़समों की लकीरों और रूढ़ियों के हाशिए को तो तोड़ कर ही दम लूँगी। उसका ऑटो कुछ दूर ही पहुँचा था कि लाल बत्ती हो गई। भीड़ भरी सड़क पर बसों कारों के बीच ऑटो लाल बत्ती पर ज्यों ही रुका समीरा ने झट से माला गले से खींच कर तोड़ते हुए उसके सारे मनके सड़क पर दे मारे ताकि बसों व कारों के पहियों के नीचे दब कर माँ की दी क़सम चूर-चूर हो जाए और समीरा इन रूढ़ियों से मुक्त। 

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