बदनसीबी
कृष्णा वर्मा
जैसा वह है ऐसा होना
उसका क़ुसूर नहीं
सीली कोठरी में जन्मा
खुली नालियों वाली तंग
बदबूदार गलियों में कंचे गिल्ली डंडा खेलता
डंडी से टायर को ठेलता
पता ही न चला कब
आसपास घटती घटनाओं को
अनजाने आत्मसात कर लिया उसने
गलियों के अँधेरे मोड़ों पर जुए के जमावड़े
अभद्र भाषा में जुमलों संग ठहाके सुनता
साल दर साल बढ़ता उसका वुजूद
कब उस सोहबत में घुल गया
फिसलन भरी गलियों में जहाँ
न सूर्य का उजाला था न ही ज्ञान का
उसकी भटकन भरी ज़िन्दगी ऐसी फिसली कि जा गिरी
दमघोटू गाँजा अफ़ीम और शराब की दुर्गंध में
वह वही पढ़ता और गुढ़ता रहा जो कानों को सुनाया
दायरे की पातक हवाओं ने
और यही अमल बन गया उसका काला मुक़द्दर
नशे असले बारूद और बंदूक
अभिशाप बनकर लद गई उसके युवा कंधों पर
इसे उपलब्धि जानकर उसने ठहाका लगाया
और मनुष्यता रोने लगी ख़ून के आँसू।