वे दिन बीत गए

15-11-2020

वे दिन बीत गए

शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’ (अंक: 169, नवम्बर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

जो हँसने-गाने के दिन थे,
इस जीवन के,
वे दिन बीत गए।
 
किरणों की हर लालपरी का,
हँसना अच्छा था,
सुख से निकल, दुखों में कुछ दिन,
धँसना अच्छा था,
रात-दिनों के ये कठेठ घट,
बिन प्रयोग के,
घट-बढ़ रीत गए।
 
शब्दों के जिस दरवाज़े पर,
सूरज उगता है,
सूरजमुखियों के आंगन में,
जाकर डुबता है,
बचपन वाले  दादी माँ के,
सुखद सुहाने,
हँसमुख गीत गए।
 
खेल-खेल में हार हुई, दिन
भद्दा लगता था,
बिछी हुई गिट्टी पर सोना,
गद्दा लगता था,
हार-जीतकर, जीत-हारकर,
अँधियारे में,
पाले जीत  गए।
 
जीने की इस भागदौड़ की,
दौड़ अधूरी है,
अंतिम मंज़िल तक जाने की,
साध अँगूरी है,
आँचा-पाँचा करते-करते,
साथ छोड़कर,
मन के मीत गए।

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