तुम सर्दी की धूप : प्रेम ईश्वर का दिया अनूठा उपहार

01-07-2019

तुम सर्दी की धूप : प्रेम ईश्वर का दिया अनूठा उपहार

कृष्णा वर्मा

तुम सर्दी की धूप (कविता संग्रह) 
वर्ष : 2018
कवि - रामेश्वर काम्बोज ’हिमांशु’
प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20 महरौली नई दिल्ली -110020  
मूल्य : 280 रुपये
पृष्ठ : 140 

 

काव्य संग्रह ‘तुम सर्दी की धूप’ शीर्षक को सार्थक करता ख़ूबसूरत कवर पेज देखते ही पढ़ने की उत्सुकता जगी। पुस्तक को खोलते ही न केवल कविताएँ बल्कि काव्य की विभिन्न विधाओं का भंडार पाया। 

इस संग्रह में भाई काम्बोज जी की हृदय-स्पर्शी २८ कविताओं के साथ ३१४ दोहे, ७४ मुक्तक, क्षणिकाएँ, फूल पाँखुरी, हाइकु, ताँका, माहिया और रजत-कण संग्रहीत हैं जिसमें विविध काव्य विधाओं का रसास्वादन एक साथ मिलता है। संग्रहीत कविताओं में विविधता, संप्रेषणीयता, भावों की गहन अनुभूति, शब्द चयन का सौंदर्य, प्रखर संवेदना बड़े प्रभावशाली रूप में नज़र आती है।

सहज, सरल शब्दों में जिए भोगे पलों की कोमल अनुभूतियों को उकेरते शब्द काल्पनिक नहीं लगते। कथ्य के अनुसार भाषा, प्रतीक–बिम्ब और शिल्प के अद्भुत प्रयोग ने सौन्दर्य भाव के साथ रचनाओं को प्राणवंत बनाया हैं। 
जीवन में घटित होने वाले लगभग सभी बिंदुओं को कवि ने छुआ है।

प्रेम ईश्वर का दिया अनूठा उपहार है जो उम्र की सीमाओं से परे आत्मिक अनुभूति का विषय है। ‘मैं और मेरी प्रियात्मना’ में कवि की प्रार्थना में आत्मीया के सुखों की ऐसी चाहना आज के समय में कोई पावन मन ही कर सकता है। 

मेरी परम आत्मीया का न हो 
कभी दुखों से सामना। 
जब भी हो पथ कठिन 
प्रभुवर मेरे!
मेरी इस अनुरागमयी का 
हाथ तू ही थामना 
इसके सब दुख देना मुझे 
पुष्पित पथ पर 
इसे आगे बढ़ाना।


‘लिख दूँ मैं बीज मंत्र’ ‘आत्मा की प्यास तुम हो’ जैसी मन को छूती रचनाओं में किसी के दुख की रेखाओं को बदलने की तो किसी के ताप को हरने की कवि मन ने दुआएँ माँगी हैं। 

जब परिवार टूटता है तब मन टूटता है। रिश्ते-नाते सब जगह केवल स्वार्थ ही व्याप्त है। जीवन के निर्मम सच को उकेरती ‘कि घर न टूटे’, रचना में तपते जीवन की व्यथा है।

कि घर न टूटे
टूटना पड़ा हमको
तो घर कुछ बचा

यदि स्वप्न नहीं होगा तो महत्वाकांक्षा भी नहीं होगी। और इसके बिना मनुष्य किसी भी गम्भीर लक्ष्य तक पहुँचने में असमर्थ रहेगा। ‘अपने और सपने’ रचना में सपनों के टूटने का दर्द स्पष्ट झलकता है।

अपने और सपने 
बहुत चोट देते हैं
बाहर-भीतर
जीकर- मरकर
शायद यही अपने कहलाते हैं
जी भर रुलाते हैं
फिर भी इनका मन नहीं भरता
इनकी बातों से ऐसा कौन है
जो रोज़ नहीं मरता।

भ्रष्ट व्यवस्था आम आदमी का कैसे शोषण कर रही है क्या आम आदमी की यही नियति है कि वह अस्तित्व के लिए निरंतर संघर्ष करते- करते मिट्टी में मिल जाये। अपनी रचना ’आम आदमी’ में कवि का कहना है-

आम आदमी 
जिसे हर किसी ने आम समझ कर चूसा है।
आम आदमी 
जिसके कंधों पर चढ़कर भवन बनते हैं 
जिसके कंधों पर चढ़कर लोग 
सत्ता की कुर्सी टाँगते हैं। 

भीतर में उथल-पुथल मचाती भावनाओं, संवेदनाओं को कम से कम शब्दों में अभिव्यक्त करना, कोई कुशल कलाकार ही कर सकता है। सरल प्रवाहपूर्ण भाषा में गंभीर कथ्य को संप्रेषणीयता के साथ प्रस्तुत करने में दक्ष काम्बोज जी के दोहे, मुक्तक, क्षणिकाएँ, माहिया हों या हाइकु मन मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ते हैं। 

दोहा

रूप आज, कल है नहीं, आती जाती छाँव।
हमको पूरा चाहिए, तेरे मन का गाँव॥ (३९)

मुक्तक

तुम अकेले ही चले थे, फिर अकेले ही चलो,
बियाबाँ के दीप जैसे, तुम अकेले ही चलो,
जो बिछुड़ गए बाट में, कहीं न तुमको मिलेंगे
आँसुओं को पोंछ डालो, मत हिमालय बन गलो। (२३)

क्षणिकाएँ


सूली पर लटकी / पल-पल मरती आशा / तुमने कहा- रिश्ता। 
मेरा बेचैन मन/ बेवजह गीली आँखें / लगता आज तुम / बहुत रोए होगे।

फूलपाँखुरी


मन-मंदिर में तुम्हीं रौशन ज्यों दीया।
पाकर के तुम्हें जग में सब पा लिया॥

हाइकु


शुभ दर्शन / तृप्त हुए नयन / सिंचित मन। थी सूनी घाटी / पुकार सुन भीगी / मन की माटी।
टूटा जो पेड़ / छोड़ गए थे पाखी / लता लिपटी। नेह का जल / जीवन का सम्बल / साथ तुम्हारा।

आपके काव्य माणिकों से हिन्दी जगत निरंतर दीप्तीमान रहे। इन्हीं मंगल कामनाओं के साथ इस हृदयग्राही काव्य संग्रह के लिए आपको हार्दिक बधाई एवं बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। 
 

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