ट्यूलिप

23-02-2019

ट्यूलिप

कृष्णा वर्मा

तुम्हारे दिव्य रूप के मोहपाश में
बँधने से नहीं बच पाई मैं
ख़रीद ही लिया चंद रोज़ पहले तुम्हें
केवल दस डालर दे कर
अपने कमरे की कुर्सी के ठीक सामने
खिड़की के नीचे पड़ी मेज़ पर सजा दिया है
भोर की किरणें रोज़ खिड़की से उतर
ऊर्जित करती हैं तुम्हें
सहलाती हैं तुम्हारा तन
पत्तियों को दुलारे ज्यों पवन
फूलों का मुख ज्यों चूमते तुहिन कण
तुम्हें सरसता देख हुलस उठता है मेरा मन
पल-पल नेह भरे जल से
सींचती है तुम्हें मेरी दृष्टि
इंतज़ार है तो केवल तुम्हारे खिलने का
अनायास एक सुबह तुम्हें विकसित हुआ देख
नाच उठा मेरा मन
तुम्हें यूँ मुसकुराता देख
लगा ज्यों हो कोई मेरा सगा सहोदर
तुम क्या जानो हँसना-खिलखिलाना तो
आजकल किताबी शब्द हो कर रह गए हैं
या यूँ समझो कि आदतन ही अब
आत्मलीन होने लगे हैं सब
कितने मोहक हो तुम मेरी कल्पना से परे
चटक लाल रंग निखरा-निखरा यौवन
कोमलता ऐसी की निगाह फिसल जाए
तुम्हारा दिपदिपाता रूप देख
स्वत: प्रशंसा भरे शब्द
नित बैठने लगे हैं मेरे होंठों की मुँडेर पर
अनायास संवादों का मौन बोलने लगा
तुम तो मेरी रूह की ख़ुराक बन गए हो
सच में तुम्हारी उपस्थिति ने
नया विस्तार दे डाला है मेरी सोच को
कभी-कभी इस कटु सत्य को सोच
सहसा मन काँपने लगता है मेरा
खोने लगोगे जब तुम अपना अस्तित्व
क्षीण होने लगेगा तुम्हारा लावण्य
काट डालूँगी तेज़ धार कैंची से तुम्हें
और फेंक दूँगी इसी खिड़की से बाहर
फिर से माटी में माटी होने।

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