टंकी के शहरों में
शिवानन्द सिंह ‘सहयोगी’खड़े हैं कटघरों में
फसलों के गाँव।
जोत चढ़ी रधिया की,
बुधई के नाँव।
कोट-पैंट पहने है
बदली की, धूप,
टंकी पे लटके हैं,
शहरों में कूप,
विधवा सी मरुथल में,
कीकर की छाँव।
तालों के पनघट हैं,
कूड़ों के ढेर,
जलकुम्भी नदियों के,
जुएँ रही हेर,
गेहूँ के खेतों में,
ईंटों के पाँव।
गाता न ठुमरी है,
पंछी का ठोर,
आठ बजे जगता है,
आँगन का भोर,
फागुन की गलियों में,
कौओं के काँव।
खोंइछा न पाता है,
लज्जा का फाँड़,
चीनी में उठँगी है,
गन्ने की खाँड़,
पछवाँ का जोर हुआ।
पुरवा के ठाँव।
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