सवाल (धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’)

15-01-2020

सवाल (धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’)

धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’ (अंक: 148, जनवरी द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

कभी गुलज़ार में खिले,
उन फूलों को देखता हूँ।
तो उनकी महक महसूस होती है,
जाने कितने ही सवाल उठते हैं, 
मन में मेरे...
और फिर खो जाता हूँ, 
यूँ ही....तन्हाइयों में,
जिनके होने और ना होने से,
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।


ज़िंदगी कुछ ऐसे, 
मोड़ पर आ खड़ी है,
जहाँ से वापस लौटना,
अब नामुमकिन सा है मेरे लिये....
दिल घबराता है कुछ इस क़दर,
मानो किसी पिंजरे में क़ैद हो गयी हो,
मेरी रूह.....जिससे आज़ाद होना,
नामुमकिन सा हो मेरे लिये....


सोचता रहता हूँ,
उन बुलन्दियों के बारे में।
जिनकी शाखाओं तक,
मेरा पँहुच पाना अभी मुश्किल सा है।
रात के अँधेरे में,
चमकते तारों से कुछ पूछता हूँ।
क्या? सच में जलना पड़ता है.....
आसमान छूने की ख़ातिर।

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