दिन-रात पेंशन के लिए चक्कर लगाते चक्करघिन्नी से हो गए थे सुमेर चौधरी। आए दिन दफ़्तर के एक से दूसरे कमरे के चक्कर लगाते सुबह से शाम हो जाती और हाथ लगती फिर वही निराशा, जिसे जेब में डाल भारी कदमों से चल देते घर की ओर। इंतज़ार करती पत्नी ने आज फिर लटका मुँह देखा तो रुआँसी हो बोली, "अजी कब तक चलेगा ऐसा, मीरा के पापा। अब तो रसोई के सब डब्बे भी मुँह चिढ़ाने लगे हैं।" आठ वर्षीय ननिहाल आई धेवती की ओर इशारा करती बोली, "एक लाड़ ना लड़ा सकी इसे। आज तो चावल का दाना तक नहीं है घर में। जाओ बाज़ार से पाँव भर चावल ही ले आओ।"

बाज़ार का नाम सुनते ही गुड़िया नाना के साथ जाने को मचलने लगी।

"बिटिया तुम थक जाओगी बहुत दूर है बाज़ार। धूप भी बहुत तेज़ है किसी दिन शाम को ले चलूँगा तुम्हें।"

"ले क्यूँ नहीं जाते.. ज़रा मन बहल जाएगा बच्ची का।"

ढीले हाथ से जेब टटोलते हुए उदास आवाज़ में बोले, "पाव भर चावल भी मुश्किल से हो पाएगा।" बेबसी से गुड़िया की ओर देख बोले, "इसने यदि किसी गुब्बारे पर भी हाथ रख दिया तो सह नहीं पाऊँगा।"

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु
लघुकथा
कविता-सेदोका
कविता
सिनेमा चर्चा
कहानी
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
कविता-माहिया
विडियो
ऑडियो