ना जाने क्यूँ?

01-01-2020

ना जाने क्यूँ?

धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’ (अंक: 147, जनवरी प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

ना जाने क्यूँ?
व्याकुल है मेरा हृदय
स्वयं को लेकर, 
व्यस्त सा रहता है
उस भँवरे की तरह
जो मग्न रहता है,
कुमुद को खिलाने में......


ना जाने क्यूँ?
नादान परिन्दे की भाँति
मेरा भी मन विचलित हो जाता है।
उड़ कर नील गगन में,
जो भूल जाता है अपने नीड़ की राह....


ना जाने क्यूँ?
मैं जब सफलता के 
शिखर पर पहुँचने का मार्ग खोजता हूँ।
तो दिखती हैं दो राहें,
और फिर असमंजस में फँस जाता हूँ......

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