फ़साना लिख दूँ

15-05-2020

फ़साना लिख दूँ

धर्मेन्द्र सिंह ’धर्मा’ (अंक: 156, मई द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

तन्हाई में जी रहा हूँ मैं,
तेरी यादों के कफ़स में...
ना जाने कैसी बेचैनी सी है?
मसरूफ़ हूँ तेरे इश्क़ में...
अब बस जी चाहता है कि,
मैं तेरी मुहब्बत का...
कोई फ़साना लिख दूँ।


इस क़दर से देखा तूने,
अपनी नज़रों को फेरकर...
रूह तड़प उठी है मेरी, 
दिल-ए-बेक़रार है।
हर कोशिश नाकाम सी है,
आख़िर कैसे मिलूँ मैं तुझसे?
या कोई बहाना लिख दूँ?


भीगी हुई सड़कें भी
धुँधला सी गई हैं,
रौशनी से भर दो कभी
मेरे आशियाने को...
समा जाओ तुम मेरी साँसों में,
अब क्या इससे भी महफ़ूज़,
कोई ठिकाना लिख दूँ?


बारिश की बूँदों सा,
टिप-टिप बरस जाऊँ मैं...
भीगी ज़ुल्फ़ों के साये तले,
झरने सा झर जाऊँ मैं...
घिरे बादलों सा हूँ मैं, 
क्या इससे भी हसीन मौसम,
सुहाना लिख दूँ।


घायल कर दिया है तुमने,
मेरे नाज़ुक से दिल को...
मासूमियत भरी निग़ाहों ने,
जादू चलाया हो कोई...
एक अर्से से बेक़रार हूँ,
आजा तेरी आँखों पर भी,
कोई तराना लिख दूँ।


बेशक मैं कंगाल हूँ,
पर क़िस्मत को नहीं कोसा...
अमीरी छलक रही है,
मेरे दिल के हर ज़र्रे में...
अगर धड़कन भी माँग लो,
कोई ग़म नहीं! अब क्या और भी...
कोई खज़ाना लिख दूँ।

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