एक ख़त ख़ुदा के नाम

25-02-2016

एक ख़त ख़ुदा के नाम

विजय विक्रान्त

मेरे आक़ा, मेरे मौला:

तेरा ये नाचीज़ बन्दा बहुत दिनों से तुझको ख़त लिखने की हिम्मत जुटाने की कोशिश कर रहा था। आज तेरे करम और फ़ज़ल से, ओ मेरे मालिक, वो हिम्मत जुटा पाय़ा हूँ और गुज़ारिश के साथ-साथ तुझ से चन्द सवालात करने की ग़ुस्ताख़ी कर रहा हूँ। मुझे पूरी उम्मीद है, मेरे सरताज कि मेरी इस गुस्ताख़ी को नज़रे-अन्दाज़ करते हुये मेरे सवालों को समझने की और अपने ख़ादिम को जवाब देने की इनायत बख़्शोगे।

क्यों मज़हब की आड़ में और अपनी हकूमत को क़ायम और बरक़रार रखने के लिये, आज तेरे नाम को लेकर, दुनिया में नफ़रत के बीज बोये जा रहे हैं? कहाँ गया वो भाईचारा जहाँ हिन्दु, मुसलमान, सिख, ईसाई और यहूदी अपनी जातपात को भूलकर एक दूसरे में एक इन्सान और उसकी इन्सानियत को ही देख़ते थे। यही नहीं, आड़े वक़्त में एक दूसरे के काम आना, मुसीबत में कन्धे से कन्धा मिला कर चलना और एक दूसरे के दुख-सुख को बाँटना तो आम बात थी। कहाँ तो तेरे बन्दे हमेशा गाया करते थे:

इन्सान का इन्सान से हो भाई चारा – यही पैग़ाम हमारा

और कहाँ अब उन्हीं बन्दों ने, जो अपने को तेरा मुरीद कहते हैं, ने हैवानियत की चादर ओढ़ ली है और एक दूसरे के इस हद तक जानी दुशमन बन गये हैं कि सिवाय नफ़रत के और क़त्लेआम के उन्हें कुछ और सूझता ही नहीं। तू तो ऊपर बैठा हुआ है। ज़रा नीचे झाँक कर देख तो पता चले कि यहाँ तेरी इस सरसब्ज़ ज़मीं पर क्या हो रहा है?

तेरे नाम पर उन छोटे-छोटे मासूम बच्चों को जिन्हें इस दुनिया में आये हुये अभी चन्द ही दिन हुये हैं, यतीम बनाया जा रहा है या फिर बेदर्दी से मारा जा रहा है। क्या क़सूर है उनका? कयों बहन से भाई को, बीवी से ख़ाविन्द को, माँ-बाप से औलाद को अलग किया जा रहा है? आजकल तो बाहर निकलना भी दुश्वार हो गया है क्योंकि ना जाने, कब, कैसे, कहाँ पर तेरे नाम को लेकर बम्ब फटने शुरू हो जायें।

कहते हैं कि जब ज़ुल्म की इन्तहा होती है तो एक मसीहा, एक पैग़म्बर या फिर एक भगवान जन्म लेता हैं। अब तू बता कि तुझे किस नाम से पुकारूँ? वैसे नामों में रखा भी क्या है क्योंकि तू मसीहा भी है, पैग़म्बर भी है और भगवान भी है। बहुत देर हो चुकी है मेरे परवरदिगार। अब और देर मत कर और जल्द से जल्द यहाँ आ कर दुनिया को इन दुखों से निजात दिला।

मेरी इस इबादत को क़बूल कर मेरे आक़ा और अपने रहमो-करम से इस दुनिया को सही रास्ता दिखा

झोली फैला कर तेरे इन्तज़ार में:
तेरा एक ख़ादिम

मेरे ख़त का जवाब

मेरे हम-चश़म, मेरे हम-जलीस, मेरे हम-नशीन, मेरे हम-सफ़ीर:

क़ासिद ने आज जब मुझे तुम्हारा प्यार भरा पैग़ाम दिया तो बहुत अच्छा लगा। इतने अरसे बाद किसी ने मुझे याद तो किया। बस इसी बात को सोच-सोच कर दिल बाग़-बाग़ हो गया है। वैसे आजकल मुझे अकेलापन बहुत महसूस होता है। सच्चे दिल से याद करने वालों की गिनती दिन-ब-दिन कम होती जा रही है, फिर ख़त लिख कर याद करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। आज तुम ने जो यह ज़हमत उठाई है उसके लिये मैं तुम्हारा शुकरगुज़ार हूँ।

मेरे अज़ीज़ दोस्त, एक ही साँस में तुम ने इतने सारे सवाल कर के एक बार तो मुझे भी लाजवाब कर दिया। कहाँ तो मेरी सरसब्ज़ ज़मीं पर हमेशा इन्तहा-मुहब्बत, सच्ची-दोस्ती और भाई चारे का माहौल होता था और कहाँ अब वो हालात हो गये हैं जिन का ज़िक्र तुम ने अपने ख़त में लिखा है। हालाँकि वहाँ के बारे में तुम ने जो लिखा हैं उस से मैं पूरी तरह से वाकिफ़ हूँ। यहाँ बैठा हुआ सब कुछ अपनी आँखों से देख रहा हूँ, ख़ून के आँसू बहा रहा हूँ लेकिन मेरी भी कुछ मजबूरियाँ हैं जिन की वज़ह से मैं वो सब नहीं कर पाता जो करना चाहता हूँ।

ज़मीन पर रहने वालों ने जब मज़हब के नाम पर मेरे एक जिस्म के सैंकड़ों टुकड़े कर दिये थे तब भी मुझे कोई शिकायत नहीं हुई क्योंकि मज़हब के नाम पर उन सब का कहना था कि:

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हम इस जहाँ के बच्चे, सारा जहां हमारा

कई बार तो मुझे ख़ुद को लगता है कि मैं अपनी पहचान भूल गया हूँ। क्या कोई बता सकता है मुझे कि मैं कौन हूँ; मसीहा, पैग़म्बर, भगवान या फिर कोई और?

क्या पता था मुझे कि वही लोग जो ‘जियो और जीने दो” में यक़ीन रखते थे, वक़्त के साथ-साथ इतने बदल जायेंगे कि सिवाय “मैं” के उन को कुछ और नज़र ही नहीं आयेगा। मेरा बहुत मन करता है कि एक बार जन्म लेकर ज़मीन पर जाऊँ और इन दीवानों को समझाऊँ कि आपस में प्यार से रहना सीखो। लेकिन इन सब हालात को देखते हुये मुझे दुबारा जन्म लेने में भी डर लगता है। सब से बड़ा डर तो इस बात का है कि हालाँकि नाम तो मेरे बहुत हैं लेकिन जिस्म से तो मैं एक ही हूँ। ज़मीं पर किस शक्ल में आऊँ; बस यही सोच-सोच कर रात दिन परेशान रहता हूँ। मेरी सब से बड़ी यही मुशकिल है कि मैं अपने जिस्म के किस टुकड़े में जन्म लूँ। मुझे अच्छा ख़ासा पता है कि जिस टुकडे का भी इस्तेमाल करूँगा उस से कुछ लोग तो ख़ुश हो जायेंगे लेकिन बाक़ी लोगों को तक़रार के साथ-साथ आपसी दंगे-फ़साद करने का एक मौक़ा मिल जायेगा। कहीं तो ख़ुशियों का आलम होगा और कहीं पर मातम मनाया जायेगा।

ऐसे हालात में तो मेरा अभी ज़मीं पर आना बहुत मुश्किल लगता है। मेरे दोस्त मायूस मत हो। मुझे जैसे भी मौक़ा मिलेगा, फौरन आऊँगा, ज़रूर आऊँगा।

सरसब्ज़ = हरी-भरी; हम-सफ़ीर = अतरंग मित्र; हम नशीन = साथ बैठने वाला; हम जलीस = नज़दीकी दोस्त; हम चश़म = मित्र

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