ज़मीर मेरा कहता जो करता रहा था तब तक,
मिल रहा था मुझ को क्या बन के ख़ुद्दार में।
बिकना ज़रूरी था देख कर बदल गया,
बिक रहे थे कितने जब देखा अख़बार में।
हौले सीखता गया जो ना था किताब में,
दिल पे भारी हो चला दिमाग़ कारोबार में ।
सच की बातें ठीक हैं पर रास्ते थोड़े अलग,
तुम कह गए हम सह गए थोड़े से व्यापार में।
हाँ नहीं हूँ आजकल मैं जो कभी था कल तलक,
सच में सच पे टिकना ना था मेरे इख़्तियार में।
ज़मीर से डिग जाने का फ़न भी कुछ कम नहीं,
वक़्त क्या है क़ीमत क्या मिल रही बाजार में।
तुम कहो कि जो भी है सच पे ही क़ुर्बान हो ,
क्या ज़रूरी सच जो तेरा सच ही हो संसार में।
वक़्त से जो लड़ पड़े पर क्या मिला है आपको,
हम तो चुप थे आ गए हैं देख अब सरकार में।